Sunday 22 May 2016

जिस दिन ... - 4

- 4 -

नीरा! क्या खूब जोड़ी थी नीरा और हर्ष की! बिलकुल हर्ष की मम्मी की पसंद अनुसार. कैसे? नीरा के माँ-बाप बचपन में ही चल बसे थे और वह अपने मामा-मामी के घर ही बड़ी हुई थी. हर्ष की मम्मी का पसंद का तर्क कुछ इस तरह था कि अगर बहु का मायका ही नहीं होगा तो वह मायके जाने की बात ही नहीं करेगी. 
नीरा देखने में सुंदर थी और बड़ी समझदार भी थी. पर उसकी पढ़ाई पूरी न हो पाई थी. कॉलेज जाने का मौका ही नहीं मिला. आखिर अपने माँ-बाप जितना प्रोत्साहन कोई और देता है? उससे वैसे तो अपने ससुराल में सारे सुख मिल रहे थे ... नहीं मिल रहा था तो वह था सम्मान. हर्ष अक्सर अपने ही रिश्तेदारों और दोस्तों के बीच में नीरा का मज़ाक उड़ाया करता रहता. एक दिन नीरा ने बड़े प्यार से हर्ष से कहा "आप को अगर मेरी कोई बात अच्छी नहीं लगती हो तो आप मुझे एकांत में बता दिया कीजिये. यूँ सबके सामने कहते हैं तो मुझे बड़ा अजीब सा लगता है."
हर्ष ने उससे प्यार से बाहों में लेते हुए कहा "अरे पगली! मैं क्या कहता हूँ वह मत देख ... तुझसे कितना प्यार करता हूँ वह देख!"
मगर नीरा इस जवाब से पूरी तरह संतुष्ट नहीं थी. सोचा समय के साथ या तो हर्ष की आदत बदलेगी और या तो उससे ही यह सब सुनने की आदत पड़ जाएगी. मगर फिर हर्ष घर में भी आम बातों पर नीरा में नुक्स निकालता रहता. खामियां बताता रहता. इमरान यह बात जानता था मगर वह इससे मिया-बीवी की आपस की बात समझ कर कुछ नहीं कहता. यूँही कुछ और महीने बीते और अब तो हर्ष अपने दोस्तों के घर दावत पर जाता तो वहां भी बोल देता "भाभी, आप ही नीरा को खाना पकाना सिखा दीजिये. उससे तो खिचड़ी भी ढंग की नहीं बनती!"
एक रात ऐसी ही एक दावत से जब हर्ष और नीरा घर लौटे तो नीरा रो पड़ी. 
"हर वक़्त, हर जगह मुझे क्यों नीचा दिखाते रहते हैं?"
हर्ष गुस्से में बोला "तुम्हे तो मज़ाक लेना भी नहीं आता! मैं यूँही मज़ाक में बोलता रहता हूँ."
"मज़ाक कई और बातों का भी तो हो सकता है. कभी मेरे खाने पकाने को लेकर या कभी मेरे कपड़ों को लेकर ... एक हद होती है मज़ाक की. और आप वह हद बार बार पार करते रहते हैं हर्ष!"
"उफ़! कैसी औरत से पाला पड़ा है! तुम्हारी जगह किसी पढ़ी-लिखी लड़की के साथ शादी करता तो वह ..."
"मुझसे ज़्यादा पढ़ी-लिखी होती तो आपका यह रवैया यह स्वाभाव एक महीने से ज़्यादा सहन ना करती."
"ज़रूर सहन करती. तुम्हारी जैसी तो कई मिल जाती. मज़ाक को मज़ाक समझ कर हस तो लेती!"
"और अगर मैं भी सबके सामने आपका इस कदर मज़ाक उड़ाती तो?"
यह सुनते ही हर्ष ने अपना हाथ तो उठाया पर वहीं रुक गया. वह एक औरत को कैसा मारता? और वह भी जब वह औरत उसकी पत्नी हो? उस एक पल में जैसे उसने अपनी हद नीरा को दिखा दी थी. और नीरा इस हद को एक शुरुआत समझ कर चौंक गई थी. हर्ष अपने कमरे में सोने चला गया. बात बढ़ाने से कोई फायदा नहीं था. 
अगले दिन सुबह हर्ष देर से उठा. रविवार जो था. आज उससे इमरान के साथ धवल के घर जाना था. नहाकर तैयार हो कर नीचे आया. नीरा कहीं नज़र नहीं आ रही थी. एक दो बार आवाज़ लगाई. फिर किचन में जाकर देखा. टेबल पर एक खत पड़ा था. खोला और पढ़ा.
'हर्ष, मैं जा रही हूँ. आपके साथ रह कर हर बार अपना अपमान सुन कर थक चुकी हूँ. आप मेरे साथ रह कर भी मुझ में कोई खूबी ना देख पाये, महीने में दो बार आने वाले मनोज जी मुझे खूब समझ पाए. शायद मैं आपके लायक नहीं हूँ. या शायद आप मेरे. शायद. आप हमेशा कहते थे कि आपको मुझसे अच्छी बीवी मिल सकती है. आशा करती हूँ आपकी खोज सफल रहे. - नीरा'
घर की घंटी बार बार बजी. हर्ष धीरे धीरे चल कर दरवाज़ा खोलने गया. इमरान था. "कितनी देर लगा दी? 3  मिनट से बेल बज रहा हूँ. भाभी घर पर नहीं?"
हर्ष अवाक् सा ... खत इमरान के हाथ में थमा कर सोफे पर बैठ गया. इमरान ने खत पढ़ा. वह जाकर हर्ष के पास बैठा. अब कैसा कहता कि ... 

Saturday 21 May 2016

जिस दिन ... - 3

- 3 -

हर्ष अब अपने पापा की कॉटन मिल संभालता था. पढ़ाई तो पूरी हो चुकी थी पर वह तो उसके लिए एक औपचारिकता ही थी. उससे कहाँ औरों की तरह नौकरी करनी थी. अलबत्ता इस पढाई से यह फ़ायदा हुआ कि अब वह इस व्यवसायिक ज्ञान से अपने व्यापार को आगे बढ़ा सका और आधुनिकीकरण कर सका. साथ ही वह धन निवेश के लिए सस्ते दाम पर ज़मीन खरीदता और मुनाफा मिलने पर ज़मीन बेच देता. उसकी पहचान देसाई जी से हुई जो एक अनुभवी दलाल थे और जिन्होंने हर्ष के लिए एक से बढ़कर एक ऐसे सौदे तय किए थे.

देसाई जी की भी अपनी एक वजह थी कि वह हर्ष को इतने अच्छे सौदे दिलवाते - हर्ष सौदा करने में ज़्यादा समय बर्बाद नहीं करता और अपना निर्णय जल्द ही ले लेता. दूसरी वजह यह थी कि हर्ष चुकौती समय पर कर देता था. इन दो सालों में दोनों को एक दूसरे पर काफ़ी विश्वास बैठ गया था. और इसी विश्वास के चलते देसाई जी को हर्ष का नाम सुझा जब उनके पास एक बिल्डर का सौदा आया. इस बार वह खुद अपना पैसा निवेश करना चाहते थे. ज़मीन का वह टुकड़ा ऐसी जगह पर था जहाँ 4  साल में ही उसका भाव दुगने से ज़्यादा होने की संभावना थी. यह एक सुनहरा मौका था.19 लाख की रकम तो तैयार थी उनके पास मगर कहीं से भी बाकी 3 लाख रुपयों का बंदोबस्त नहीं कर पा रहे थे. औरों के लिए हज़ारों और लाखों का मुनाफा करवाने वाले देसाई जी अपने लिए भी कुछ अच्छी आशा लिए हर्ष की ऑफिस पहुँचे.
हर्ष अपनी मीटिंग खत्म करके ऑफिस में ही बैठा था और ... "आइए देसाई जी! कैसे हैं?"
"बस आप जैसों की दुआ और प्रभु की दया से सब कुशल मंगल है."
"कहिए, क्या लेंगे? चाय या ठंडा?"
"ठंडा ही मंगवा लीजिए. बाहर इतनी गर्मी है कि चाय पीने का मन ही नहीं करता."
हर्ष ने दो ग्लॉस शर्बत मंगवाए. "और सुनाइए. मार्केट बड़ा ठंडा है. कुछ है खरीदने को?"
"हाँ है. पर फिलहाल तो मैं खुद सोच रहा हूँ कि विकास प्रॉपर्टीज के नए प्रोजेक्ट में इन्वेस्ट करूँ. इस एक इन्वेस्टमेंट से मेरे निवृत जीवन में काफी आराम रहेगा. यूँ समझ लीजिए अच्छी खासी पूंजी जमा हो जाएगी. पर बस 3 लाख रूपये कम पड़ रहे हैं."
"कोई मुश्किल नहीं. आप बैंक से उधार ले लीजिए."
हर्ष के 'कोई मुश्किल नहीं' से देसाई जी की आशा जितनी बढ़ी थी वह उसके 'बैंक से उधार ले लीजिए' कहने पर कुछ डग नीचे आ गई.
"मैंने पहले से ही घर और गाड़ी के लिए उधार लिया हुआ है. नहीं, बैंक से लोन मुमकिन नहीं."
"ओह! तो अब क्या करेंगे?"
"मैं सोच रहा था कि अगर आप ही मुझे 3 लाख उधार दे देते. मैं व्याज के साथ आपको यह रकम १ साल में चूका दूंगा."
हर्ष सोच में पड़ गया - इस सोच में नहीं कि वह पैसे उधार दे या नहीं. मगर इस सोच में कि वह क्या बहाना दे कर मना करे. "देखिये देसाई जी, मेरे पापा और मम्मी सिंगापोर जाने वाले हैं, मेरी मौसी के यहाँ. अब रिटायर हो कर पहली बार जा रहे हैं तो खाली हाथ जायेंगे नहीं. टिकट, तोहफे और कई और खर्चे हो रहे हैं. इसलिए फिलहाल तो मेरे पास ३ लाख तो क्या, 50000 रूपये भी नहीं."
यह एक ऐसा सफ़ेद झूठ था जो देसाई जी जानते थे क्योंकि उन्होंने ने ही दो हफ्ते पहले एक सौदा करवाया था जिससे हर्ष को १० लाख का मुनाफा हुआ था. मगर वह यह भी समझ गए थे कि हर्ष उनकी मदद करना ही नहीं चाहता. शर्बत उनके गले से उतर नहीं रहा था ... गले में निराशा जो अटकी हुई थी. अब वहाँ बिना वजह बैठने का कोई फ़ायदा नहीं था. वे खड़े हुए और हर्ष से कहा "ठीक है फिर, तो मैं चलता हूँ."
हर्ष की निगाहें कंप्यूटर के स्क्रीन पर थी. उसने आँखें मिलाये बिना ही देसाई जी को कह दिया "ठीक है. फिर मिलेंगे."

देसाई जी बड़े मायूस होकर ऑफिस से निकले. रिश्तेदारों और दोस्तों से उधार ले कर उन्होंने १० लाख तो जमा किये थे मगर अब कोई ऐसा नहीं बचा था जिनसे वे पैसे मांग सके. औरों के लिए मुनाफा करवाने वाले देसाई जी ने आज अपने ही जीवन में निवेश और संबंध में घाटा महसूस किया. वह सौदा अब उनके हाथ से गया.

सालों से चल रही रोज़ की आदत - हर्ष और इमरान घर के बाहर पार्क पर मिले. इमरान घर में सिगरेट नहीं पीता था. और हर्ष को आदत थी रात के खाने के बाद पान खाने की. दोनों अपनी दिन दिनचर्या बता रहे थे. और हर्ष ने देसाई जी की बात कही. मगर इमरान की अभी भी वही राय थी "यह तुमने ठीक नहीं किया हर्ष. तुम्हारे लिए ३ लाख कौनसी बड़ी बात है. फिर ये तो सोचो उनकी वजह से अब तक तुम्हे शायद 80-90 लाख का मुनाफा हुआ होगा."
"अरे छोड़ न यार! आज 3  लाख मांगे, कल 5  और परसों 10 लाख मांगते. उनकी प्रॉब्लम है, मेरी नहीं."
"नहीं यार. हमें उन लोगों की कदर और मदद करनी चाहिए जो अपना नफा-नुक्सान देखे बिना हमारे लिए इतना कुछ करते हैं."
"अरे बाजार भरा पड़ा हुआ है देसाई जी जैसे दलालों से. वैसे भी मैं उनको वक़्त पर दलाली दे दिया करता हूँ."
"होंगे कई दलाल, पर देसाई जी जैसे नहीं. जिस दिन उन्हें कोई और कदर करने वाला मिल गया उस दिन वे हमारा साथ छोड़ देंगे. अच्छा यह बता इंदौर से उस लड़की के घरवालों का कुछ जवाब आया?"


(... to be continued)

Friday 20 May 2016

जिस दिन ... 2

- 2- 

हर्ष के पापा की कॉटन मिल थी. अपने परिवार की हर सुख सुविधा का ख़याल रखने वाले वे एक अच्छे बेटे, अच्छे पति और एक अच्छे पिता थे. हर्ष अक्सर उनके साथ मिल और ऑफिस जाया करता. आखिर पढ़-लिख कर उससे ही तो सब कुछ संभालना था. एक दिन हर्ष के पापा का ड्राइवर उससे ऑफिस ले जा रहा था. वहां जाने से पहले उससे वकील की ऑफिस से कुछ ज़रूरी कागज़ात भी ले जाने थे. ड्राइवर ने गाड़ी पार्क की और चाबी को गाड़ी में ही छोड़ गया - जिस पर हर्ष की नज़र पड़ी. 15 साल की उम्र का जोश - हर नया कुछ आज़माने की उमंग ... जोश ही तो होता है, होश नहीं. हौसला कब बेवकूफी बन जाए - उम्र का यह मोड़ इस बात से अंजान होता है. हर्ष ड्राइवर की सीट में बैठ गया और गाड़ी स्टार्ट की. उसने संभलते संभलते गाड़ी चलाई और मेइन रोड पर ले गया. मगर बाकी गाड़ियों के साथ रफ़्तार बनाए रखने के चक्कर में एक्सेलरेटर पर कुछ ज़्यादा ही जम कर उसका पैर पड़ा ... और धड़ाम!
गाड़ी सीधे जा टकराई पार्क की हुई एक स्कूटर से. हर्ष हक्का-बक्का सा, सहमा सा गाड़ी में ही था. स्कूटर का मालिक वहां आ पहुँचा, कुछ लोग इकट्ठा हुए और ड्राइवर भी वहां आ पहुँचा. ड्राइवर ने तुरंत ही दरवाज़ा खोल कर हर्ष से कहा "आप बाहर आ जाइए". गाड़ी पर थोड़ी सी खराशें आई थी और स्कूटर को भी कुछ नुक्सान हुआ था. ड्राइवर ने बड़ी समझदारी से मामला संभाल लिया और स्कूटरवाले को यकीन दिलाया कि उनके मालिक स्कूटर की मरम्मत का सार खर्च उठाएंगे, बस वह रिपोर्ट न दर्ज कराए. स्कूटरवाला मान गया, बात दब गई. ड्राइवर गाड़ी लेकर ऑफिस गया और हर्ष के पापा को सारी घटना बयान कर दी. ड्राइवर के जाने के बाद, पापा की डाँट से बचने के लिए हर्ष ने अपने पापा से कहा "अनूप जी झूठ बोल रहे हैं. वह गाड़ी उनसे ही टकराई थी. मुझे डरा-धमका कर कहा कि अगर मैंने आपसे सच कहा तो मेरी खैर नहीं". पापा अपने बेटे को बखूबी जानते थे. उन्होंने सोचा 'अभी छोटा है. बड़ा होगा खुद कर समझ जाएगा कि झूठ बोलना खुद अपने पैर काटने बराबर है'.
अगले दिन जब हर्ष इमरान से मिला तो गाड़ी टकराने वाली सारी बात बताई. फ़र्क - दोस्त को सब सच बताया. दोस्त थोड़ी न डांटेगा. पर इमरान सच्चा दोस्त था. डांटा नहीं, पर समझाया "तुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था. सोच अगर अनूप जी बात न संभालते और पुलिस आ जाती तो?"
"अरे! तो क्या? पापा संभाल लेते ना!"
"नहीं हर्ष. हमें हमेशा उन लोगों की कदर करनी चाहिए जो खुद के सिद्धांत को एक ओर रख कर हमारे लिए झूठ बोलते हैं, हमारी मदद करते हैं."
"अरे बहुत मिल जाएँगे ऐसे."

"नहीं हर्ष, जिस दिन उन्हें कोई और मिल गया जो उनकी कदर करता है तो वे हमारा साथ छोड़ देंगे. खैर, यह बता की आज का मैच कहाँ देखेंगे - तेरे घर या मेरे घर?"



(... to be continued)

Thursday 19 May 2016

जिस दिन ... 1

- 1 -

हर्ष ने अपनी किताबें कबर्ड में रख दी. दिवाली की छुट्टियों में होमवर्क कौन करे? दूध पीया और इमरान के घर भागा. इमरान जूते पहन रहा था. दोनों ने मिल कर तय किया था कि स्कूल से मिला होमवर्क छुट्टियां खत्म होने के तीन दिन पहले शुरू करेंगे. मंदिर के पीछे बड़े मैदान की तरफ बॉल और बेट लेकर चल दिए.
हर्ष ने कहा "याद है ना आज पहले मैं बैटिंग करूँगा?"
"हाँ याद है." इमरान ने जवाब दिया. फिर कुछ हिचक कर कहा "हर्ष, तूने आज शुभम के साथ जो किया वह ठीक नहीं था."
"मतलब?"
"मतलब एक तो उसने तुझे अपनी किताब दी जिससे तू अपना छूटा हुआ होमवर्क कर सके और तुम्हे मेथ्स के प्रश्न हल करने में मदद भी की. मगर जब उसने तुमसे पुछा कि क्या वह हमारे साथ खेल सकता है तुमने साफ़ मना कर दिया?"
"अरे छोड़ ना! वह नहीं होता तो कोई और होता मदद करने के लिए."
"हाँ होता. मगर फिर भी ... एक दिन के लिए ही खेल लेता हम दोनों के साथ. पता है अम्मी कहती है हमें हमेशा उन लोगों की कदर करनी चाहिए जो हमारे लिए अपना वक़्त निकाल कर हमें मदद करते हैं."
"उफ़ ओह! बहुत मिल जायेंगे ऐसे!"
"नहीं हर्ष. जिस दिन उन्हें कोई और कदर करने वाला मिल जायेगा तो वे हमारा साथ छोड़ देंगे. अच्छा यह ले बेट पकड़. मैं ईंट ले आता हूँ."
स्टंप्स की जगह चार ईंटो को एक के ऊपर एक रख कर वन-डे क्रिकेट मैच शुरू हुआ - ऐसी दो टीम के बीच में जिनमे एक एक खिलाड़ी ही था और हर खिलाड़ी की उम्र 8 साल की थी.


(to be continued ...)

Saturday 14 May 2016

मैं क्या करूँ?


एक काली उदास रात को
गहरी नींद की गिरफ़्त में थी मैं
ऐसे में वह मेरे सपनों में आया.
यूँ रुला भी गया, यूँ मना भी गया.
मुझसे गले लग कर मेरे आंसू पोंछता भी गया.
भीगी आँखें थी मेरी जब मैं जागी
इस कदर वह सपने को वास्तविकता में बदलता गया.
अब मैं क्या करूँ?

सोचा उससे सपनों से आज़ाद कर दूँ,
हकीकत में ही उससे क्यों न ले आऊं?
पर वह इस बात से अंजान
मुझसे नाराज़ हो गया, बहुत दूर हो गया.
अब मैं क्या करूँ?

सोचा उसकी मूर्ति ही बना लूँ.
मिटटी, पानी और प्यार मिलाया,
उसकी काया को अपने हाथों से संवारा 
एक शिल्पकार का हुन्नर दिखाया.
मगर उस मूर्ति में जान आ गई
और वह वहां से चला गया.
अब मैं क्या करूँ?

सोचा उसकी तस्वीर ही बना लूँ.
अपने कमरे की एक दीवार पर
कई रंगों से, प्यार भरे वर्ण से
उसकी मोहक तस्वीर बनाई.
एक कलाकार का हुन्नर दिखाया.
मगर उस तस्वीर में जान आ गई
और वह वहां से चला गया.
अब मैं क्या करूँ?

सोचा उसके नाम का एक काव्य लिखूं.
अपने ह्रदय के शब्दकोष से शब्द चुने
और उसके वर्णन में कई पद रचे.
एक कवियत्री का हुन्नर दिखाया.
मगर उस काव्य में जान आ गई
और वह वहां से चला गया.
अब मैं क्या करूँ?

जो भी प्रयास करूँ
वह तो उठ कर चला जाता है.
उससे मनाने के लिए
अब मैं क्या करूँ?

फिर शांत चित्त से सोचा.
मेरे मन में एक महल बनाया.
महल में एक भूलभुलैया बनाई.
उससे फिर से अपने विचारों में ले आई
और उस भूलभुलैया के बीच छोड़ आई.
वह वहां से बाहर निकलने का रास्ता ढूंढ रहा है.
वह आज भी मेरे विचारों में क़ैद है.
अब कोई बताये कि

वह क्या करे?

Wednesday 11 May 2016

ख़त - 11

'बिज़नेस कैसा जा रहा है? ऑपरेशन के बाद मम्मी की तबियत तो ठीक रहती है ना? रोहन कैसा है? कल मैं पापा की आँखों का चेक-अप करवाने जा रही हूँ. कुछ दिनों से सर में दर्द की शिकायत कर रहे हैं. शायद नए चश्मे की ज़रुरत हो उनको. ध्रुव ने पिछले हफ्ते से स्केटिंग क्लास शुरू की है और रोज़ शाम 7 बजे स्केटिंग के लिए जाता है. चलो, आज रविवार है तो उससे बाहर घुमाने ले जा रही हूँ. मम्मी पापा अपना आशीर्वाद भेजते हैं. 
अपना खयाल रखना - नैना.'
मन की ख़ुशी आँखों की चमक बन कर झलक रही थी. उसने ख़त को फिर से पढ़ा. गुलाबी रंग के लिफ़ाफ़े में डाला. कबर्ड खोला और दो साल से हर महीने लिखे जाने वाले ख़त के संग्रह में इस ख़त को भी रख दिया. 

Tuesday 10 May 2016

ख़त -10

"क्या?"
"मुझे डिवोर्स चाहिए. तलाक."
"पी मैंने थी पर लगता है तुम्हे चढ़ गयी! या रात को चुपके से तुमने दो तीन पेग मार लिए थे?"
"मैं मज़ाक नहीं कर रही."
"तो होशवाली कौनसी बात कर रही हो?"
"होश में आई हूँ इसलिए तो कह रही हूँ."
"ओह! कल के चांटे की वजह से? ऐसे तो कई चांटे खाये हैं तुमने. फिर एक चांटे का इतना असर? नफरत की वजह से ..."
"नफरत नहीं पराग. मोहब्बत. खुद से मोहब्बत! ज़िन्दगी से मोहब्बत! जीने की चाह से मोहब्बत!"
"देखो मुझे कोई स्टुपिड सा ड्रामा नहीं चाहिए. वरना कल जिस ज़ोर की पड़ी थी ..."
"हाथ उठा कर तो देखिये पराग! यहाँ के डॉमेस्टिक वॉयलेंस एक्ट के तहत आपको जेल न भिजवाया तो कहना. यहाँ सब पड़ोसी, हमारे डॉक्टर, रिश्तेदार सब वाकिफ़ है इस बात से कि आप मुझ पर हाथ उठाते हैं. उनमे से किसी एक की गवाही ही काफ़ी होगी. फिर मुझसे तो क्या, ध्रुव से मिलने के लिए भी कोर्ट की परमिशन लेनी पड़ेगी. रुक क्यों गए? हाथ उठाइए मिस्टर पराग दीक्षित!"
पराग को ऐसा लगा जैसे किसी ने उससे ज़ोर से मुक्का मारा हो. वह गुस्से में गाडी की चाबी ले कर बाहर चले गया. क्या हो गया था नैना को? कल रात का गुस्सा उतार रही होगी शायद. उसने रात को किसी पब में ही खाना खाया. देर रात घर लौटा तो देखा नैना टीवी देख रही थी. उसने ध्रुव को खाना खिलाकर सुला दिया था. पराग ने कोट उतारते हुए कहा "मैं खाना खा कर आया हूँ."
"मैंने आपसे पूछा?"
पराग इस बेरुखे जवाब से कुछ दंग सा रह गया. "एक काम करना. कल मैं काम पर जाऊं तो तुम डॉक्टर के पास जाकर अपने दिमाग की जांच करवा लेना."
इतना कह कर वह अपने कमरे में सोने चला गया.
अगले दिन नैना ध्रुव को साथ लेकर गई ... पर डॉक्टर के पास नहीं. वह सिटीजन्स एडवाइस ब्यूरो में गई. 
यह नागरिक सलाह केंद्र इंग्लैंड के हर शहर में होता है. यहाँ से आम लोगों को कानूनी सलाह और सहायता मुफ्त में दी जाती है. वहां से नैना ने डिवोर्स के लिए सारी ज़रूरी जानकारी - जैसे की कानूनी कार्यवाही, मार्गदर्शन - और एक अच्छे सॉलिसिटर (वकील) का नाम और नंबर भी ले आई. 
बस उसने फिर कभी मुड़ के पीछे नहीं देखा. ध्रुव पहले तो बौखलाया हुआ सा था, हैरान था पर उसने पराग के साथ इतना वक़्त ही नहीं बिताया था कि वह अपने पापा की कमी ज़्यादा महसूस करे ... और फिर आजकल उसकी मम्मी भी बहुत खुश रहने लगी थी ... हमेशा मुस्कुराती रहती थी ... ध्रुव के लिए यह काफ़ी था. पराग के एहम ने उससे नैना के पेटिशन को रोकना मुनासिब नहीं समझा. अगर वह ऐसा करता तो दुनिया यही कहेगी न कि पराग को नैना की ज़रुरत है, उसकी गरज है? वह नैना को दिखाना चाहता था कि उसके रहने या न रहने से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता था. पराग का यह एहम नैना के लिए आशीर्वाद समान साबित हुआ - उससे एक साल में ही डिवोर्स मिल गया. 
नैना ध्रुव को लेकर इंडिया चली आई. उसके माँ-बाप को अफ़सोस तो हुआ कि उनकी बेटी का विवाहित जीवन सफल न रहा मगर साथ ही उन्हें यह ख़ुशी भी थी कि नैना ने हिम्मत करके अपने आपको उस नर्क से छुड़ा लिया था और सही सलामत उनके पास थी. जिस आदमी ने कभी भी अपनी बेटी पर हाथ न उठाया हो उससे कोई अपनी जागीर समझ कर मारे तो? पराग अब अगर नैना के पिता के सामने आता तो वे उससे चांटे मार मार कर मार ही डालते! नैना मुंबई के एक कॉलेज में लेक्चरर की नौकरी करती थी. ध्रुव भी एक अच्छी सी स्कूल में पढ़ता था और अपने नाना-नानी के प्रेम की छाँव में खिल रहा था. 
आकाश ने इंडिया में ही अपना व्यवसाय शुरू किया. मगर पैसों की ज़रुरत पढ़ी तो वह एक बड़ी कंपनी से आई नौकरी की ऑफर को ठुकरा न सका और बिज़नेस की ज़िम्मेदारी छोटे भाई को सौंप दी. यूँ तो वह बड़ा व्यस्त रहता पर फिर भी फेसबुक पर अपने जीवन की छोटी बड़ी बातें अपने लोगों के साथ बांटता रहता.
ज़िन्दगी की राह भी बड़ी अजीब है. हम भूल जाते हैं कि रौशनी हमारे अंदर होती है. बाहर का अँधेरा देख कर घबरा जाते हैं और इस घबराहट में उस रौशनी को भूल जाते हैं और हमें आगे राह दिखाई नहीं देती. अगर हम खुशनसीब होते हैं तो कोई हमें आकर याद दिला जाता है कि अपनी आँखें खोलो, अपनी ही चेतना से आगे रास्ता देखो ... या फिर जैसे हमारे अंदर ही दिया, बाती और तेल होता है ... हम खुद उस दीये को जलाना भूल जाते हैं. फिर कोई इंसान जीवन में एक दियासलाई बनकर आता है और हमारे मन के दीये को जला जाता है. आकाश भी नैना के जीवन में एक दियासलाई बनकर आया था. नैना को नयी राह भी दिखी और जीवन फिर से रोशन हो गया. उस एक रात ...
आज ... अभी ... यहाँ ... नैना अपने मन के उड़नखटोले के ज़रिये वापस लौट आई. उस अधूरे ख़त की तरफ. 


(... to be continued)

Monday 9 May 2016

ख़त - 9

आप कड़ी धुप में चले जा रहे हो और कहीं एक घने पढ़ के नीचे ठंडी छाँव मिल जाए तो? आप बारिश में भीगते भीगते जा रहे हों और कहीं कोई सराय मिल जाए तो? ठंड में हाथ पैर ठिठुर रहे हों और ऐसे में तप्ती आग के करीब बैठने मिल जाये तो? क्या महसूस करेंगे? राहत? चैन? सुकून? या कोई शब्द नहीं सूझ रहा? बस वैसा ही एहसास नैना को हुआ. उसने अपने आप को आकाश से अलग करने की कोशिश भी नहीं की. आकाश के चुंबन में वासना नहीं थी ... कुछ और था ... चुंबन से आलिंगन ... वह आकाश से लिपट गई ... उसकी उँगलियाँ आकाश के बालों में सुलझ उलझ रही थी ... कहाँ शरीर खत्म होते और कहाँ साये शुरू होते ... पहली बार नैना की आँखों में प्रेम के अधिप्रवह के कारण आंसू निकले रहे थे. आकाश के सीने से लग कर जैसे उसने अपने दिल के दर्द उसके साथ बाँट दिए हों. आकाश उससे सोफे तक ले गया. दोनों बैठे और उसने फिर से नैना को चूमा. उसके बाल, उसकी आँखें, उसके कान, उसके गाल, उसके होंठ ... और नैना ... तप्ती ज़मीन पर जैसे बारिश की बूँदें गिर रही हों. नैना उससे लिपटी रही और वह नैना के बाल सहलाता रहा ... और यूँही न जाने कब ... कितने दिनों बाद उससे चैन की नींद आई.

टिंग टिंग टिंग ... नैना अपनी माँ के साथ किसी मंदिर में थी. कुछ जाने कुछ अनजाने चेहरे नज़र आये ... एक औरत कब से मंदिर की घंटी बजाये जा रही थी ... टिंग टिंग टिंग ...नैना की माँ उससे कुछ कह रही थी पर घंटी की आवाज़ की वजह से उससे कुछ साफ़ सुनाई नहीं दे रहा था. उसने आगे बढ़कर उस औरत के कांधे पर हाथ रखा ... टिंग टिंग टिंग ... यह तो उसके फ़ोन से बज रही थी ... वह एकदम से जाग गई. उसके सुबह 5 बजे का अलार्म! हर शनिवार रात को वह यह अलार्म बंद कर देती थी मगर ... उफ़! अपने आपको सोफे पर पाकर रात की यादें ताज़ा हों गई. आकाश वहां नहीं था. लगता है वह उसकी बाहों में सो गई होगी और आकाश ने उस पर चादर रख दी होगी. और अगर पराग ने पुछा की वह वहां नीचे क्यों सोई थी तो? कहीं पराग नीचे तो नहीं आया था
वह दबे पाँव अपने कमरे में गई ... पराग खर्राटें भर रहा था. फिर ध्रुव के कमरे में ... वह भी सो रहा था. वह मुड़ कर चली जाती मगर गेस्ट रूम का दरवाज़ा आधा खुला था. झाँक कर देखा ... आकाश और सागर सो रहे थे. वह नीचे किचन में गई, किचन साफ़ किया और फिर से अपने कमरे में चली गई. आधे घंटे के लिए सो जाएगी ... मगर ... रात की  यथार्थता उससे एक सपना सा लग रही थी ... वह करवटें बदल बदल कर जैसे आकाश की बातों को उलट पुलट कर उन्हें सेच रही हो. उसने उस हकीकत को जीवित करते हुए सामने रखा जिससे नैना ने अपने दिल के किसी कोने में दफ़न कर दिया था. और इसी सोच में सात बज गए.

नैना नहा-धो कर, पूजा करके किचन में गई और नाश्ता बनाने लगी. पहले ध्रुव, फिर सागर, फिर आकाश और फिर पराग ... बारी बारी सब नीचे आए. नाश्ता करके सागर और आकाश बिर्मिंघम के लिए निकल दिए. उसने आकाश से नज़रें नहीं मिलाई पर जाते जाते आकाश ने उससे कहा 'अपना खयाल रखना'. पर खयाल में तो जैसे अब किसी और के खयाल शामिल को करना? उनके जाते ही पराग फिर से सो गए. नैना ने ध्रुव को नहलाया, तैयार किया और पार्क में ले गई. वह उस माहौल से दूर होना चाहती थी जिसकी वजह से उसका मन दुविधा में था ... एक अजीब असमंजस में था. एक घंटे बाद ध्रुव को अपने पड़ोसी के बेटे के साथ खेलने के लिए उसके घर पर छोड़ आई. अपने घर आई तो देखा पराग फ्रेश हो कर नीचे सिटींग रूम में पेपर पढ़ रहा था. उसने गहरी साँस ली और कहा "पराग, मुझे डिवोर्स चाहिए."



(... to be continued)

Sunday 8 May 2016

मेरी माँ

दुनिया में सबसे प्यारी मेरी माँ!

सुबह की पहली किरण सी मेरी माँ,
काले आसमान में पूनम के चाँद सी मेरी माँ!

तप्ती गर्मी में शीतल वर्षा सी मेरी माँ,
ठिठुरती ठंड में आग की गर्मी सी मेरी माँ!

मैं डगमगाती तो ठीक से चलना सिखाती मेरी माँ,
और गिर जाती तो उठाकर संभलना सिखाती मेरी माँ!

मैं रोती तो मेरे आँसू पोंछकर मुझे हंसाती मेरी माँ.

मुझे लड़ना, आगे बढ़ना सिखाती मेरी माँ
और ज़रुरत पढ़ने पर रुक जाना भी सिखाती मेरी माँ!

मैं जीत जाऊँ तो मेरी पीठ थपथपाती  मेरी माँ
और हार जाऊँ तो हौसला बढ़ाती मेरी माँ!

मेरी हर अगुआई के लिए दुआ मांगती मेरी माँ
और जब थक जाऊँ तो माथा सहलाती मेरी माँ!

अपने पैरों पर खड़े होकर कुछ पाना सिखाती मेरी माँ
पर साथ ही मेरे लिए दुनिया से लड़ लेती मेरी माँ!

सदा मुझ पर स्नेह और आशीष बरसाती मेरी माँ,
मेरी बला और मेरे बीच में ढाल बनती मेरी माँ!

आज मैं सफल हूँ, सक्षम हूँ, संपन्न हूँ
पर फिर भी हूँ अधूरी
क्योंकि मेरे पास अब नहीं है ... मेरी माँ.

Saturday 7 May 2016

ख़त - 8

आकाश इस एक नाम से समझ गया कि नैना के दिल में क्या था.
"माफ़ कीजिये नैना जी, ध्रुव को अपना बहाना मत बनाइये."
"बहाना?"
"और नहीं तो क्या? अगर आप ऐसा सोचती हैं कि ध्रुव पर उसके पिता का साया रहेगा तो यह भी सोचिये - वह जिससे देख कर बड़ा होगा उसी के जैसा बनेगा. क्यूंकि उसने इतने करीब से किसी और को जाना ही नहीं होगा. और एक हकीकत यह भी है कि बड़े तो सब बच्चे होते हैं - चाहे वे माँ-बाप के साथ रहते हो या अनाथ-आश्रम में. वहां भी बच्चे तहज़ीब और हुनर सीखते हैं. फिर ध्रुव अकेला तो नहीं. उसके साथ उसकी माँ जो है."
नैना अचानक खड़ी हो गई. यह ठीक नहीं था. आकाश को वह इतने करीब से जानती तक नहीं थी कि उससे अपने दिल की बात कहे या उसकी कोई बात सुने. उसके नसीब में जो था वह उससे कैसे भाग सकती थी? और फिर भी ... न जाने क्यों ... उससे आकाश में किसी अपने का एहसास हो रहा था. उसने अपने कानों पर हाथ रखे और आकाश से कहा "मैं आपकी कोई बात नहीं सुन्ना चाहती. प्लीज़ आप चले जाइए."
आकाश ने नैना की कलाइयां पकड़ते हुए उसके हाथ कानों से हटा कर कहा "क्यों सच से भाग रही हैं?"
"मैं नहीं भाग रही!"
"तो सामना क्यों नहीं करती?"
"क्या करूँ सामना करके? कुछ नहीं बदलेगा!"
"क्योंकि आप नहीं चाहती कि कुछ बदले."
"यह झूठ है!"
"नहीं, यही सच है! आपको दुःख सहने में मज़ा आता है."
"आप क्या बोले जा रहे हैं?"
"हाँ नैना! सच तो यह ही कि आपको अपने आप पर दया खाने की आदत पड़ गई है."
"स्टॉप इट!"
"क्यों? यही सच है ना?"
"चुप हो जाई..."

मगर तब तक आकाश के होंठ नैना के होंठ तक पहुँच चुके थे.



(to be continued ...)

Friday 6 May 2016

ख़त - 7

आकाश ने सर झुकाया. ऐसा नहीं था कि उसने वह सब जानबूझ कर चोरी-छिपे सुना था. मगर अब बताते वक़्त उससे ऐसा ही लग रहा था.
"मुझे कॉल करना था और सिटींग रूम में सबकी बातों और टीवी की आवाज़ की वजह से साफ़ सुनाई नहीं दे रहा था. इसलिए मैं आपके किचन से होकर बैकयार्ड में कॉल करने गया. दरवाज़ा खुला था इसलिए सब साफ़ सुनाई दिया जब ..."
"जब?"
मगर आकाश ने जवाब न देकर सिर्फ उसकी तरफ देखा. नैना ने उसकी आँखों में शायद दया देखी ... या हमदर्दी? ... ओह! तो पराग और उसके बीच में जो हुआ उसके बारे में आकाश जानता था. नैना उलझे हुए खयालों मन में लिए खिड़की की तरफ देख रही थी. क्या कहती? 'नहीं नहीं! आपको गलतफ़हमी हुई है ... पराग ने पहली बार हाथ उठाया है' ... 'नहीं नहीं! यह तो पति-पत्नी के बीच होने वाली आम नोकझोंक है' ... मगर वह ऐसा कुछ क्यों कहती? कब तक यूँ पर्दादारी जारी रखती ... आकाश ने हलके से अपना हाथ नैना के हाथ पर रख दिया.
"एक बात पूछूं?"
नैना कुछ नहीं बोली ... न 'हाँ' न 'ना' ... 
"आप क्यों झेल रही हैं इस आदमी को? इस जीवन को?"
नैना अब भी चुप थी. वह क्यों झेल रही थी यह सब? खुद से कई बार पूछा था उसने. आज पहली बार कोई और भी पूछ रहा था. 
"मैं नहीं जानती."
"क्या आप के माँ-बाप जानते हैं आपका हाल?"
"नहीं. मैंने नहीं बताया?"
"क्यों? क्यों नहीं बताया?"
"वह जानेंगे तो उनका दिल नहीं दुखेगा क्या?"
"और जब उन्हें पता चलेगा कि आप इतने साल से यह सब छिपा रही थी तो उन्हें बहुत ख़ुशी होगी शायद?"
यह सुनकर नैना के माथे पर शिकन आ गयी और अब वह आकाश की तरफ देख रही थी. 
"यकीन मानिए जब उन्हें पता चलेगा कि आपने उनको क्या कुछ नहीं बताया तो उन्हें कई हद्द ज़्यादा दर्द होगा. कि आपने उनको इस लायक ही नहीं समझा कि उनसे अपनी आपबीती कह सकें?"
उसने अब नैना का हाथ अपने हाथों में रखा और कहा 
"सागर आपकी बहुत इज़्ज़त करता है. उसने मुझे बताया की आप डबल ग्रेजुएट हैं. आप सुन्दर हैं, पढ़ी-लिखी है, अपने दो पैरों पर खड़े होने की क़ाबिलियत रखती हैं. आप के घर को तो मैं देख ही रहा हूँ - कितना साफ़ सजाया हुआ है. फिर आप में आत्मविश्वास की यह कमी क्यों?"
क्यों? क्या जवाब देती? रोज़ पराग के मुँह से सुनकर की वह आलसी है, मुर्ख है, निकम्मी है, झूठी है ... यह सब सुनते सुनते जैसे उससे अब खुद में भी ऐब नज़र आने लगे थे. कभी पराग से कह देने को जी करता था कि इतनी ही बुरी हूँ मैं तो छोड़ क्यों नहीं देते मुझे? मगर फिर उससे ध्रुव का खयाल आता. एक बच्चे को उसके माँ और बाप दोनों की ज़रुरत होती है.
"ध्रुव..."


(to be continued ...)

Thursday 5 May 2016

ख़त - 6

कोई किसी छोटे बच्चे के हाथ से उसका मनपसंद खिलौना छीन ले तो आप क्या करेंगे? और कुछ ना कर पाए तो क्या महसूस करेंगे? गुस्सा? लाचारीआकाश भी कुछ ऐसा ही महसूस कर रहा था.
नीचे नैना डाइनिंग रूम में टेबल पर से प्लेटें उठा रही थी और सब बर्तन सिंक में डाल कर धोने की तैयारी कर रही थी. एक प्लेट में अपने लिए खाना निकाला और ढँक दिया. किचन साफ़ हो जाने के बाद खा लेगी. मगर ना जाने क्यों आज जैसे उसके बाज़ुओं में से जान चली गयी हो ... और फिर जल्दी करे या धीरे से ... 'आलस' से ... करना उससे ही था ... जब इतना ...
"हेलो! नैना जी?"
दरवाज़े पर दस्तक के साथ सुनाई देनी वाली आवाज़ से नैना कुछ चौंक गयी. "अरे आकाश जी! आप सोये नहीं? कुछ चाहिए था?"
हाँ, आपके उदास चेहरे पर एक मुस्कान. "जी नहीं. मतलब जी हाँ, एक ग्लास पानी पीना था."
नैना ने एक ग्लास पानी भर दिया और आकाश को दिया पर वह उस ग्लास को सिर्फ हाथ में पकडे हुए था.
"आपने खाना खाया?"
"जी?"
"आपने खाना खाया या नहीं?"
"नहीं. पेहले किचन साफ़ कर लूँ. यहाँ कहाँ इंडिया की तरह कोई कामवाली मिलती है. खुद ही सेठानी और खुद ही नौकरानी. बाद में खा लुंगी".
"काम कहाँ भागा जा रहा है. सही वक़्त पर खाना खा लेना ज़रूरी है वरना तबियत बिगड़ती है. और देखिये ११:30 बज गए हैं."
"अरे कोई बात नहीं. मुझे आदत है ..."
मगर आकाश ने अपने ही होंठों पर ऊँगली रखी और इशारा किया 'श्श्!"
फिर मुस्कुरा कर कहा "चलिए आपकी यही ज़िद्द है तो यही सही. तो आप और मैं मिलकर किचन साफ़ कर लेते हैं."
"नहीं नहीं! आप क्यों करेंगे?"
"क्यूंकि आप मेरी बात नहीं मान रहीं."
नैना हल्का सा मुस्कुराई. अपनी प्लेट को माइक्रोवेव में रखा और खाना गरम किया. आकाश ने उसके लिए एक ग्लास पानी टेबल पर रखा. वह प्लेट लेकर बैठी ... मगर ... यह आखरी बार कब हुआ था कि किसीने उससे यूँ ज़बरदस्ती से ... इतना आग्रह करके उससे खाने को कहा था ... शादी से पहले शायद ... जब माँ ने उसके लिए पुरी-सब्ज़ी बनाई थी ... गरमा गरम परोस रही थी ... वह मना कर रही थी कि "बाद में खा लुंगी" ... पापा ने उसका हाथ पकड़ कर कहा था "चुपचाप अच्छी बच्ची बन जा और खाना खा ले! वरना मैं भी ठंडा खाना ही खाऊंगा" ... और वह पापा के साथ पुरी-सब्ज़ी खाने बैठ गई ... यह यादें इतनी ताज़ा हो गईं थी कि आँखों में चुभने लगी थी. नहीं, आँखों में तो आंसू चुभ रहे थे ... निवाला मुंह तक पहुंचा भी न था कि बाढ़ आ गई.
आकाश उन आंसुओं को पोंछता रहा. नैना भीगी आँखों से उससे देख रही थी. उसका हाथ हटाया ... और आकाश उससे ऐसे देख रहा था ... मानो किसी मरीज़ को देख रहा हो. "आप खाना खा लें. फिर जी भर रो लीजिएगा. में आपको नहीं रोकूंगा. प्लीज़ मत रोईए."
न जाने ऐसा क्यों होता है कि जब कोई हमें कहता है कि "मत रोईए" भावनाएं अपनी हाथों में आंसूओं की तलवार लिए बग़ावत पर उतर आती हैं. ऐसा ही कुछ नैना के साथ हुआ. वह सुबक सुबक कर रोने लगी. आकाश ने उसके हाथों से उसका निवाला ले लिए और पानी का ग्लास देते हुए कहा "थोड़ा पानी पी लीजिए प्लीज़". उसने एक दो घूंट पिए और ग्लास रख दिया. इस बार आकाश ने अपने हाथों से ही निवाला बनाया और नैना को खिलाया. पहले तो उसने मुंह खोलने से मना कर दिया. पर आकाश ने कहा "इतना स्वादिष्ट खाना बन है कि आप खिलानेवाले की उँगलियाँ भी खा जाएँगी." और इस बात पर भीगी आंखें, मंद मुस्कान के साथ नैना ने मुंह खोला. यूँही आकाश उसे खाना खिलाता गया और कुछ देर बाद नैना ने कहा "बस, अब नहीं. मैं ज़्यादा नहीं खाती". अब वह आकाश की आँखों में देख रही थी ... कई सवाल थे उसकी आँखों में ... और जवाब में उसके पास भी एक सवाल ही था "सब सो गए. आपको नींद नहीं आई?"
"मैंने आधे पेग से ज़्यादा नहीं पी है. और फिर जो देखा उसके बाद नींद आने से रही."
"ऐसा क्या देखा आपने?"



(to be continued ...)

Wednesday 4 May 2016

ख़त - 5

पराग के गुर्राए आवाज़ ने नैना को एक ही बेरहम पल में वापस लंडन में आ पटका. ध्रुव का माथे चूम कर, दरवाज़ा बंध कर वह नीचे की ओर भागी. पराग की आँखें गुस्से से लाल थी. या शायद ज़्यादा शराब पीने की वजह से लाल थी. या शायद ज़्यादा शराब पीने की वजह से वह गुस्से में था ...
"आहिस्ते से! ध्रुव सो रहा है. चिल्ला क्यों रहे हैं?"
पराग उसका हाथ खींचते हुए उससे किचन में ले गया.
"रोटियां अब तक नहीं बनी? मैं सब को बोल कर आया हूँ कि खाना तैयार है और तुम? आलसी कहीं की!"
"आप ने ही पिछली दफा कहा था कि अब की बार सब इक्कट्ठा हों तो एग कर्री और नान बनाना, रोटियां नहीं. और नान तो गरम ही परोस सकती हूँ ना? बाकी खाना तैयार है. आप कहें तब मैं नान बनाना शुरू करूँ."
"अपनी गलती के लिए मुझे दोष देती हो? खुद से ढंग का कोई काम नहीं होता. आधे अधूरे काम और ..."
"कौन सा काम ढंग से नहीं किया मैंने? क्यों मुझ में खामियां ढूँढ़ते रहते हैं? इतनी सी बात का ..."
"इतनी सो बात? ज़ुबान बहुत चलने लगी है आजकल!"
"काश ये शादी के पहले दिन से ही इतनी चलती."
"तुम्हारी इतनी जुर्रत? मुझसे ज़ुबान लड़ाती हो! मुझे शायद अभी ठीक से जान नहीं पाई तुम!"
"एक पत्थर-दिल इंसान हैं आप! घटिया सोच रखने ..."
पराग का हाथ इस रफ़्तार से नैना के गाल को छू गया कि उसके होंठ तक आये लफ्ज़ बिखर गए.
पराग सिटींग रूम में चला गया जहाँ सारे टीवी पर लॉटरी के नंबर का इंतज़ार कर रहे थे. प्रोग्राम में चल रहे शोर गुल की वजह से किचन में हुए ड्रामा के बारे में किसी ने नहीं सुना.
नैना की आँखों में आंसू तो भर आये थे पर अब वह बहते नहीं थे ... शायद जानते थे कि उन्हें कोई नहीं पोंछेगा कोई नहीं पूछेगा ... बाथरूम में जाकर अपना चेहरा धो लिया ... इससे गाल कम लाल नज़र आएंगे.
और नान बनाना शुरू किया. पांच मिनट बाद सिटींग रूम से पराग की आवाज़ आई "नैना डार्लिंग! खाना तैयार?" नैना वहां गयी और मुस्कुरा कर सब से बोली "चलिए खाना तैयार है." पराग खड़ा हुआ और बोला "चलो सब. आखिर मुहूर्त आ ही गया."
"वाह भाभी! आपके हाथों की बनी एग कर्री तो मैंने कहीं नहीं खायी. बहुत लज़ीज़ बनी है!"
"अरे तुझे ज़ोरो की भूख लगी है इसलिए तुझे ऐसा लग रहा है. यह तुझे सूखी रोटी देती तब भी तुझे वह रोटी भी लज़ीज़ लगती."
जावेद जैसे कुछ केहने जा रहा था की चुप हो गया. वह पराग की फितरत से वाकिफ था. वे और होंगे जो आग में घी डालते होंगे. जावेद ऐसा नहीं था. उसकी और मोहित की बीवियाँ तो ऐसी महफ़िल घर में रखने से साफ़ मना कर देती थी. एक नैना भाभी थी जो मुँह भी नहीं बिगाड़ती थीं और प्यार से खाना भी खिलाती थीं.
खाना-पीना हो गया और सब अपने अपने घर के लिए चल दिए. मगर बाहर तेज़ बारिश को देखते हुए सागर सोच में पड़ गया. आज वैसे भी उसने बहुत शराब पी थी. उस पर यह बारिश. अगर कोई एक्सीडेंट हो गया तो वहां के कानून के मुताबिक उसका तो ड्राइविंग लाइसेंस ही चला जायेगा. और टैक्सी भी नहीं कर सकता था. बिर्मिंघम लंडन से करीब २०० किलोमीटर दूर है. इतनी रात को कोच या ट्रैन ...
पराग ने उसके ख्यालों को रोकते हुए कहा "इतनी बारिश में कैसे जायेगा? और फिर आकाश के पास भी तो यहाँ का लाइसेंस नहीं."
"हाँ वही सोच रहा हूँ मैं."
"सोच मत. यहीं रुक जाओ. कल सुबह नाश्ता करके चले जाना."
"अरे नहीं! कैसी बात कर रहे हो?"
"अकल वाली बात कर रहा हूँ. देख हम में से किसी की इतनी हालत नहीं कि सीधा खड़ा तक रह सके. इसलिए नाटक मत कर. आकाश और तू ऊपर गेस्ट रूम में सो जाओ."
सागर के पास कोई और चारा भी नहीं था. उसके पैरों तले अब जैसे ज़मीन बहने लगी थी. वे तीनो ऊपर की तरफ गए ... पराग अपने रूम में ... सागर और आकाश गेस्ट रूम में जाकर खर्राटों वाली गहरी नींद सो गए ...
नहीं, आकाश नहीं. उसने जो सुना था, देखा था उससे उसके दिल में कोलाहल सा मचा था. 



(to be continued ...)

Tuesday 3 May 2016

ख़त - 4

रंगों में अगर एक रंग और शामिल हो जाए तो शाम कुछ और भी ज़्यादा रंगीन हो जाए. मगर यह रंग कुछ अलग सा था. आकाश उन लोगों में से था जो किसी पार्टी में कंपनी देने के लिए बियर का एक मग या व्हिस्की का एक पेग हाथों में ही पकड़े तीन-चार घंटे काट लेते. इंग्लैंड आकर उससे अजीब तो लगा कि कैसे यहाँ लोग शराब को एक टॉनिक की तरह पीते हैं. मगर वहां की ठण्ड को महसूस करने के बाद उससे कारण समझ में आ गया. वह सागर के साथ पराग के घर गया.
बड़ा खूबसूरत घर था. प्यार से सजाया हुआ. जावेद और पियूष आ चुके थे. बस मोहित का इंतज़ार हो रहा था, जो शनिवार की ट्रैफिक की वजह से शायद कहीं फस गया था. सागर ने आकाश का परिचय सबसे करवाया ... और फिर सबके जाम छलके. कुछ देर बाद मोहित भी आ गया. हसी-मज़ाक-बातें सब चलता रहा. नैना एक ट्रे में मसाला पापड़ ले आई. मोहित ने हस्ते हुए कहा "भाभी, आज एक बन्दा और भी है." यह कहते उसने आकाश के सामने देखा. नैना के मुस्कुराते हुए आकाश से कहा "सुना है आप कुछ दिन पहले ही इंडिया से आये हैं. कैसा है वहां गर्मी इस बार? यहाँ आकर तो आपको बहुत ठंड लग रही होगी?" इससे पहले की आकाश कुछ जवाब देता पराग ने कहा "वो यहाँ इतनी दूर मौसम की जानकारी थोड़ी लेने-देने आया है? जाओ और थोड़े चना-जोर-गरम ले आओ". नैना चुपके से प्लेट रख कर चल दी. मगर आकाश ने उसकी आँखों में कुछ ऐसा देख लिया जो उससे बड़ा अजीब सा लगा ... नैना चाहे मुस्कुरा कर चली गयी हो पर वो मुस्कराहट उसके आँखों तक नहीं पुहंची थी. उससे पराग का रवैया भी बड़ा अजीब लगा. पत्नी को घर की इज़्ज़त कह कर उन पर पाबंदियां लगाना और फिर उसी 'घर की इज़्ज़त' के साथ इस तरह बात करना ... अजीब होती है कुछ लोगों की सोच.
"अरे आकाश! तुम तो कुछ ले ही नहीं रहे हो. शरमाते क्यों हो?"
"जी नहीं. मैं नहीं पीता. मतलब एक पेग से ज़्यादा नहीं."
"क्यों? जचती नहीं?"
"उस हद तक कभी पी ही नहीं की जान सकूँ कि जचती है या नहीं. बस मुझे कुछ ख़ास शौक नहीं इसका."
"यहाँ तीन महीने रह जाओ. यह शौक ज़रुरत बन जायेगा."
"शायद ... मगर फिलहाल तो ऐसा कोई इरादा नहीं. मैंने शराब की वजह से इंसान को हैवान बनते देखा है. अपने आप को कभी भी उस रूप में नहीं देखना चाहता इसलिए दूर ही रहता हूँ इस बला से."
"अरे ऐसा कुछ नहीं ... हम सब को देखो ... हम क्या हैवान हैं?"
आकाश ने बात को सँभालते हुए कहा "नहीं, पर अगर मैं आप सब जैसा सुलझा हुआ न निकला तो? खैर सुना है यहाँ इम्पोर्ट ड्यूटी बढ़ाने वाले हैं? यूरोपियन देशों के अलावा कहीं से कुछ इम्पोर्ट करना हो तो अब ज़्यादा ड्यूटी लगेगी?" ... और बातों का रुख मुड़ गया ...
वहां नैना किचन में ध्रुव के लिए गरम चॉकलेट मिल्क बना कर उससे पिला रही थी. खाना बना लिया था - अंडे की कर्री, पनीर भुर्जी, तरका दाल, जीरा पुलाव, रायता, सेलड ... सब तैयार था. नान का आटा गूंध रखा था. जब सब खाने बैठेंगे तो गरमा गरम परोस देगी.
ध्रुव के हाथ-मुंह धो कर उससे सुलाने के लिए उसके कमरे में ले गई. खिड़की पर परदे गिराते हुए देखा बहार ज़ोरों की बारिश जारी है. उफ़! ठंड भी बढ़ चुकी थी. ध्रुव को मोज़े पहनाए, बेड पर सुलाया और हलकी से थपकियाँ देने लगी. ध्रुव ने पुछा "मम्मी, जब आप छोटी थी तब भी इतनी बारिश होती थी?"
"क्या?"
"आप जब छोटी थी तब भी इतनी ही बारिश होती थी?"
"बेटा, मैं जहाँ बड़ी हुई हूँ वहां साल के सिर्फ तीन महीने ही बारिश होती थी. यहाँ की तरह पूरे साल नहीं. क्यों पूछ रहे हो?"
"मैं सोच रहा था जब ऊपर पानी खत्म हो जायेगा तब क्या होगा?"
"एक काम करो. चुपचाप सो जाओ. दिमाग को आराम मिलेगा. सुबह फ्रेश हो जाओगे तो इस बात का जवाब सोच सकोगे. चलो आँखें बंद करो. गुड नाईट!"
ठंड और गरम दूध ... दिन भर की उछल कूद ... ध्रुव दो मिनट में सो गया. नैना उसका माथा सहला रही थी ... वो जहाँ बड़ी हुई थी वहां ... वहां ठंड के मौसम में भी करारी धुप निकलती ... गर्मियों के मौसम में ठंडे ठंडे गोले ... बारिश में भीगते हुए गरमागरम भुट्टा खाना ... वहां तो ...

"नैना! नैना! कहाँ हो?"


(to be continued ...)