Sunday 1 May 2016

ख़त - 2

पराग कहने को तो लंडन में कई सालों से रहता था मगर उसकी सोच भारत के एक छोटे गाँव में बसे उसके बुज़ुर्गों के समकालीन थी. जब पराग के घरवालों नैना के पिता के पास रिश्ता लेकर गए तब उन सब ने अपनी और पराग की सोच पर खूब पर्दादारी की थी. अगर सच कह देते तो पराग शायद कुंवारा ही रह जाता. नैना को जब देखने गया तब नैना के परिवार को लगा कि पराग जैसा विनम्र और शांत स्वाभाव वाला व्यक्ति कोई और हो ही नहीं सकता. काश वे जानते कि उन्हें जो दिखाया जा रहा है वह एक रंगबिरंगी आईने पर सच का प्रतिबिम्ब है. प्रतिबिम्ब रंगीन दिखता है पर वास्तविक छवि रंगीन नहीं होती. शादी के बाद सारे रंग उतर गए. लिपा-पोती का खेल नैना को समझ आ गया था. समय चलते सब ठीक हो जायेगा ... प्यार से वह पराग का स्वाभाव, उसकी आदतें बदल देगी ... यह सोच कर नैना ने भी यह पर्दादारी जारी रखी. और फिर अपने माँ-बाप को बता कर उनका जी क्यों जलाना?

नीम के पेड़ में शहद, गुड़ और शक्कर घुला पानी डालें तब भी नीम कड़वा ही रहता है. यह तथ्य नैना को देर से समझ में आया. पांच साल में अगर कुछ बदला तो वह था खुद नैना का स्वाभाव. सामान्य ज्ञान हो, राजनीती हो या देश और दुनिया में हो रही किसी भी घटना के विषय पर बड़ी चपलता से विमर्श-विवाद करने वाली वह लड़की अब हर बात पर सहमी चुपचाप रहती. पराग के अनुसार औरतों को सिर्फ किचन में काम करते दिखना चाहिए, वाद विवाद चर्चा करते हुए नहीं. उससे नैना का सजना-संवरना भी पसंद नहीं था. एक बड़ा अजीब तर्क था - जब उसकी शादी हो गई है तो वह सजधज के किसी पराये मर्द की आँखों को सुकून क्यों देना चाहती थी?

ऐसा नहीं कि नैना ने इन सब बातों का विरोध नहीं किया था. मगर बार बार उठते कलेश, पराग के गुस्से और फिर जब हाथ उठाने की नौबत आ जाती तो वह कहीं अंदर से ही टूट जाती. थक जाती. सर उठाना कितना मुश्किल है. झुका देना कितना आसान. फिर इस पराये देश में उसका कोई अपना भी नहीं था जिससे वह दिल खोल कर अपनी आपबीती सुनाती. वह रोज़ यूँही घुटती रहती.


जहाँ प्यार नहीं पर पराग की वासना बस्ती थी ऐसे रिश्ते से नैना को एक बेटा हुआ - ध्रुव.


(to be continued ...)

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