Saturday 7 May 2016

ख़त - 8

आकाश इस एक नाम से समझ गया कि नैना के दिल में क्या था.
"माफ़ कीजिये नैना जी, ध्रुव को अपना बहाना मत बनाइये."
"बहाना?"
"और नहीं तो क्या? अगर आप ऐसा सोचती हैं कि ध्रुव पर उसके पिता का साया रहेगा तो यह भी सोचिये - वह जिससे देख कर बड़ा होगा उसी के जैसा बनेगा. क्यूंकि उसने इतने करीब से किसी और को जाना ही नहीं होगा. और एक हकीकत यह भी है कि बड़े तो सब बच्चे होते हैं - चाहे वे माँ-बाप के साथ रहते हो या अनाथ-आश्रम में. वहां भी बच्चे तहज़ीब और हुनर सीखते हैं. फिर ध्रुव अकेला तो नहीं. उसके साथ उसकी माँ जो है."
नैना अचानक खड़ी हो गई. यह ठीक नहीं था. आकाश को वह इतने करीब से जानती तक नहीं थी कि उससे अपने दिल की बात कहे या उसकी कोई बात सुने. उसके नसीब में जो था वह उससे कैसे भाग सकती थी? और फिर भी ... न जाने क्यों ... उससे आकाश में किसी अपने का एहसास हो रहा था. उसने अपने कानों पर हाथ रखे और आकाश से कहा "मैं आपकी कोई बात नहीं सुन्ना चाहती. प्लीज़ आप चले जाइए."
आकाश ने नैना की कलाइयां पकड़ते हुए उसके हाथ कानों से हटा कर कहा "क्यों सच से भाग रही हैं?"
"मैं नहीं भाग रही!"
"तो सामना क्यों नहीं करती?"
"क्या करूँ सामना करके? कुछ नहीं बदलेगा!"
"क्योंकि आप नहीं चाहती कि कुछ बदले."
"यह झूठ है!"
"नहीं, यही सच है! आपको दुःख सहने में मज़ा आता है."
"आप क्या बोले जा रहे हैं?"
"हाँ नैना! सच तो यह ही कि आपको अपने आप पर दया खाने की आदत पड़ गई है."
"स्टॉप इट!"
"क्यों? यही सच है ना?"
"चुप हो जाई..."

मगर तब तक आकाश के होंठ नैना के होंठ तक पहुँच चुके थे.



(to be continued ...)

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