एक रस्सी थी. एक सिरा मेरे हाथ में और दूसरा उसके हाथ में था. हम रस्सी को पकड़ कर साथ साथ चलते.
एक दिन उसे कहीं दूर जाना था. मेरा उसके साथ जाना मुमकिन भी न था और न मैं उसे दूर जाने देना चाहती थी. मैंने रस्सी को कस के पकड़ा. उसने मुझे समझाया कि मैं उसे जाने दूँ. नादान थी… मैंने सोचा अगर मैं रस्सी को कस के पकड़ूंगी और उसे खींच लुंगी तो वह दूर नहीं जा पाएगा. उसने ज़ोर से रस्सी खींच ली और चला गया. मेरे हाथ में खून भरे छाले रह गए.
लोग कहते हैं वक़्त हर ज़ख्म भर देता है. इस किस्से को कई साल हो गए हैं मगर आज भी उन छालों से खून बहता है और मैं आज भी किसी भी रस्सी को छूने से डरती हूँ.
कुछ रिश्ते उस रस्सी जैसे होते हैं.
~ शीतल सोनी
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