Tuesday 7 December 2021

छोडो, हमें क्या?

 


उसने आँखें खोली. कुछ आवाज़ें थी. उसके हाथ पर एक ट्यूब लगी थी जो ड्रिप के साथ जुडी थी. कुछ पल बाद यह भी मेहसूस हुआ कि वह फर्श पर नहीं, पलंग पर थी. तब एक नर्स आई. पूछा "जाग गई? कैसी हो?" और जवाब का इंतज़ार किए बिना उसके मुँह में थर्मोमीटर रख दिया. "हम्म... अब बुखार कम है. डॉक्टर साहब दो घंटे बाद राउंड पर आएंगे." और नर्स चल दी. रानी नहीं जानती थी वह यहाँ कैसे पहुंची. मगर बेहोश होने से पहले की बातें याद थी. पेट में ज़ोरो का दर्द, उल्टियां. बुखार. और रोटी बनाते वक़्त गिर जाना.

दो घंटे बाद डॉक्टर आए और कहा "तुम्हें एक दिन ओर रखेंगे. दवाई ड्रिप द्वारा दी जा रही है. फिर तुम्हे कल दवाई की गोलियां देंगे. पूरा कोर्स ख़तम करना है. एक पावडर देंगे जिसे पानी में उबाल कर पीना है. और खाने में फिलहाल दाल चावल, खिचड़ी और फल खाना."

"डॉक्टर साहब, मुझे हुआ क्या है?"

"तुम्हें गैस्ट्रोऐंटरटाइटिस हुआ है. फ़ूड पोइज़निंग. तुमने शायद बासी खाना खाया होगा. पेट में इंफेक्शन हुआ. हमने एन्टिबायोटिक दी है. बहुत कमज़ोरी है शरीर में. देखो, डाइटिंग वगेरे के चक्कर में मत पड़ो. अच्छा पौष्टिक खाना खाया करो. फल, हरी सब्ज़ियां." और डॉक्टर दूसरे मरीज़ की तरफ गए.

रानी के मन में डॉक्टर की बात गूंज रही थी. बासी खाना खाया होगा. ताज़ा खाना खाया ही कब. सब के लिए शाम को ताज़ा खाना बनता और रानी को दोपहर का खाना मिलता. रात का खाना बच जाए तो दूसरे दिन उसे वही नाश्ते में खाना पड़ता.

कुछ घंटे बाद सब मरीज़ों के घरवाले उनसे मिलने आए. रानी को मिलने कोई नहीं आया. चलो अच्छा है. किटकिट और ताने तो नहीं सुनने पड़ेंगे. सब चले गए. नर्स खाना ले कर आई. दाल चावल. रानी ख़ुशी ख़ुशी से खाना खाने लगी. उसके करीब लगे बेड पर मरीज़ बड़बड़ाने लगा "कैसा खाना दिया है?" रात को नर्स ने फिर से थर्मोमीटर से चेक किया. रानी ने आँखें बंद की. सुकून, शांति. ठंडी फर्श पर नहीं, नरम गद्दे वाले पलंग पर थी. सो गई.

अगले दिन उठी, अब बेहतर लग रहा था. उसने अख़बार भी पढ़ा. ओह! यह सब होता है दुनिया में! शाम को उसके मामा आए और घर ले गए. घर पहुँचते ही मामी ने स्वागत किया "आ गई करमजली! दो दिन से महारानी हॉस्पिटल में थी और यहाँ घर का सारा काम मुझे और निशा को करना पड़ा! मुफ्तखोर कहीं की. अब चल रात का खाना बना और दोपहर के बर्तन रखे हैं वे धो ले." रानी काम तो करने लगी मगर बहुत कमज़ोरी महसूस कर रही थी. "दो दिन बेड पर क्या सोइ, तेरे तो बदन में मानो ज़ंग लग गया है."

रानी कुछ नहीं बोली. वह एक बात कहती तो सामने दस गालियाँ और सौ ताने सुनने मिलते. "६ साल की थी, अपने माँ बाप को तो खा गई, अब चुड़ैल हमारे घर आई. १० साल से बोझ बनी बैठी है. अच्छा होता उस दिन यह भी मर जाती."

दवाई लेकर वह वहीं ठंडे फर्श पर चटाई डाल कर लेट गई. अस्पताल में कितना आराम था. आँखें बंद करके वह मन ही मन अपने आप को पलंग पर ले गई.

सुबह सबके जागने से पहले जाग गई, पानी भरने लगी, नाश्ता बनाने लगी, जैसे जैसे सब उठेंगे वैसे उनके लिए नहाने का पानी गर्म करने लगी. मामा की बेटी, निशा को कॉलेज जाने में देर न हो जाए , कपडे इस्त्री कर दिए और मामा के बेटे रोहन के स्कुल का यूनिफार्म भी. फिर मामी की माताजी के लिए पूजा के फूल और कुंए से पानी ले आई कि भगवन को इसी पानी से नहलाया जाता है. फिर कपडे धोने, घर में झाड़ू पोछा, दोपहर का खाना, बर्तन, वगेरे ... इस एक हफ्ते में जीवन पहले सा हो गया. मगर शरीर अब भी कमज़ोर था. डॉक्टर का क्या है, बोल दिया आराम करना, ताज़ा भोजन करना. और इसी कमज़ोरी के चलते रानी जब कुंए से पानी भर रही थी, चक्कर आया, पैर फिसला, गिरी, माथे पर चोट आई. आँखें खुली तो अस्पताल में थी.

सिर बहुत भारी था, माथे पर पट्टियाँ भी थी और दर्द भी. नर्स आई, इस बार ब्लड प्रेशर चेक किया. "मुझे क्या हुआ?"

"सिर फट गया था तुम्हारा. ६ स्टीच आई हैं, स्टीच समझती हो न? टाँके. कमज़ोरी भी है, उठ कर चलने की कोशिश मत करना, कुछ चाहिए तो बेल बजाना."

फिर तीन दिन अस्पताल में. रोज़ सब के घरवाले खाना ले कर मिलने आते, सिवाय रानी के. सब मरीज़ अपने घरवालों से कहते थे "बस जल्दी डिस्चार्ज कर के घर भेज दें." मगर रानी खुश थी. हाँ कमज़ोरी थी, सिर में दर्द था, मगर आराम भी तो था. उसे डिस्चार्ज हो कर घर जाने में कोई जल्दी नहीं थी. अपने जीवन के बारे में सोचने लगी. कभी कोई नया कपड़ा नहीं पहना था, कभी किसी ने प्यार से बात नहीं की थी. लोग सड़क के कुत्ते को भी प्यार और दया दिखाते हैं मगर ... वह सोचते सोचते सो गई. बाहर खड़ी नर्स वार्ड बॉय से कह रही थी "अजीब है... इस लड़की को न घरवाले देखने आते हैं और न कोई पूछने. खयाल भी नहीं रखते क्या? अभी १० दिन पहले ही यहाँ से गई थी. अब ओर भी कमज़ोर है." वार्ड बॉय ने कहा "सौतेली बेटी होगी. छोडो, हमें क्या?"

तीन दिन बाद फिर मामा लेने आए, वही सब क्रम शुरू. अब वह पहले की तरह जल्दी जल्दी काम नहीं कर पाती थी. थक जाती थी. और उसकी थकान के साथ तानों की बौछार बढ़ गई. "बाहर जाकर दो पैसे कमाने पड़ते तो पता चलता." "तेरे मामा ही मुर्ख हैं जो तुझे हमारे घर ले आए, किसी अनाथ आश्रम में फ़ेंक आते तो अच्छा होता!" "हराम की हड्डियां हो गई है!" रानी ने सोचा घर से भाग जाए, मगर वह जाती कहाँ? उसे कभी भी मोहल्ले से बाहर नहीं जाने दिया था और किसी से बात भी नहीं करने दी थी.

और तब अस्पताल याद आया. न किचकिच, न ताने. बस शान्ति. मगर वह अस्पताल जाए तो कैसे? वहाँ तो सिर्फ़ वे लोग जा सकते हैं जो बीमार हो या जिन्हें गहरी चोट लगी हो. अगर उसे भी फिर से गहरी चोट लग जाए तो ... और तब मामी की माताजी की आवाज़ आई "कमिनी! पूजा के फूल क्या तेरा बाप लाएगा?" रानी ने स्टोव बंद किया और सामने बगीचे से फूल लेने गई. सड़क पार करने वाली थी तो एक बड़ी ट्रक को आते देखा. गहरी चोट. अस्पताल. शान्ति. वह मुस्कुराई. हलकी सी ही अगर टक्कर लग जाए तो ... आती हुई ट्रक के सामने कूद पड़ी. वह कमज़ोर हो गई थी. सामने तक भाग ही नहीं पाई.




Monday 29 November 2021

जंगल का शेर

 


वह खूंखार था. बड़ी सूझ थी और सामने आए हर शत्रु को मार गिराना उसे आता था. 

जंगल के प्राणी उसकी सूझ से, उसकी वीरता से बहुत प्रभावित हो गए. क्यों न होते... जंगल में इतना कुशासन जो चल रहा था. हर कोई अपनी मनमानी कर रहा था. सारे प्राणियों को लगा कि वह खूंखार जंगली वृक ही इस कुशासन का अंत लाएगा. जंगल के अंधकारमय भविष्य को एक अच्छे उजाले की ओर ले जायेगा. सब वृक का प्रचार करने लग गए. उसकी वीरता की गाथा सुनाने लगे. बुद्धि से, बल से हर किसी को बताने लगे कि यही वृक श्रेष्ठ राजा बनेगा... जंगल का शेर बनेगा. 

जंगल में चुनाव हुए. वृक जीत गया. अपनी ज़िम्मेदारी को समझने लगा. मगर तब उसे यह भी एहसास हुआ कि राजनीति में सही को गलत और गलत को सही भी कहना पड़ता है. वह शासन करना तो जानता था मगर कहीं न कहीं राजनैतिक अपरिपक्वता दिखाई देनी लगी. राजतंत्र और प्रजातंत्र में, बलपूर्वक शासन करने में और सूझपूर्वक शासन करने में उसे अंतर समझ आने लगा. परंतु उसे अधिक चिंता तो अपने छवि की ही थी. उसके सहायक और कार्यकारी मंडल में जो दूरदर्शी थे उन्हें कहीं अनदेखा कर दिया गया. जंगल के प्राणियों को उसमें कोई बुराई न दिखती. वे चाहे सहमत न होते मगर यह कह देते कि यदि उनके "शेर" ने कुछ किया है तो सोच समझकर ही किया होगा. 

वृक अब समझने लगा था कि अपने अनुयायी को खुश करने से अधिक आवश्यक यह है कि उन्हें खुश रखा जाए जो उसके सिंहासन को डगमगा सकते हैं. जो पहले से ही प्रभावित है उनको क्या ही लुभाना. उसके इस बदले हुए रवैये से उसके अनुयायी अप्रसन्न होने लगे मगर करते भी क्या. उन्होंने ही खुद ज़ोरशोर से वृक के लिए प्रचार किया था तो अब किस मुँह से उसकी अवगणना या बुराई करते. उसकी आर्थिक नीतियों से भी परेशान थे. अपने "शेर" के इस बदले बर्ताव से उनके मन में सवाल उठने लगे. निष्ठा तो अभी भी वृक के लिए ही थी मगर अब सवाल पूछने आवश्यक थे. 

सो सारे अनुयायी प्राणी उसे मिलने गए और कहा "आप हमारे साथ यह अन्याय क्यों कर रहे हैं? हमने ही आपको इतना समर्थन दिया और आप हमारी इच्छाओं की ही उपेक्षा कर रहे? कितना मान दिया, कितना लडें सबसे आपके लिए मगर आपने तो हमारी ओर देखना भी ज़रूरी नहीं समझा? क्यों कर रहे हैं आप ऐसा? आपको अपना शेर माना है हमने और..."

वृक ने हाथ उठाया और उनको टोका "मैंने कहा था आपसे कि मुझे अपना शेर मानो?"




Sunday 21 November 2021

कभी ऐसा दिन भी तो आएगा





कभी ऐसा दिन भी तो आएगा जब वे समझेंगे ... कि लड़ाई सिर्फ अपने आप को सच साबित करने के लिए नहीं करते, कभी कभी यह दिखाने के लिए भी लड़ लेते हैं कि हम भी लड़ने की ताक़त और हिम्मत रखते हैं.

कभी ऐसा दिन भी तो आएगा जब वे समझेंगे ... कि हम चुप इसलिए नहीं हैं कि हमारे पास जवाब नहीं, कभी कभी इसलिए भी चुप रहते हैं कि उनकी योजनाएँ, उनके मनसूबे जान सकें.

कभी ऐसा दिन भी तो आएगा जब वे समझेंगे ... कि हम पीछे इसलिए नहीं हटे कि हम डर गए, कभी कभी यह देखना पड़ता है कि सामने वाला किस हद आगे आने की हिम्मत रखता है.

कभी ऐसा दिन भी तो आएगा जब वे समझेंगे ... कि हम इसलिए नहीं झुकते कि हम कमज़ोर हैं, हमने देखा है अनम्य पेड़ पहले काटे जाते हैं.

कभी ऐसा दिन भी तो आएगा जब वे समझेंगे ... कि ऐसा नहीं कि हम किसी को माफ़ नहीं करते, कभी कभी कुछ लोग माफ़ी के काबिल ही नहीं होते.

कभी ऐसा दिन भी तो आएगा जब वे समझेंगे ... कि तोडना तो हमें भी आता है मगर जो हमने तोड़ा तो वे कभी जोड़ ही न पाएंगे.

कभी ऐसा दिन भी तो आएगा जब वे समझेंगे ... कि हम इसलिए तकरार नहीं करते कि हमारे पास कोई दलील नहीं मगर हम उनकी तरह बेकार और फ़िज़ूल नहीं है.

कभी ऐसा दिन भी तो आएगा जब वे समझेंगे ... कि हम इसलिए नहीं मुस्कुराते कि हम खुश हैं, कभी कभी दूसरों की ख़ुशी देख मुस्कुरा देते हैं.




Monday 15 November 2021

राजकुमारी

 


आज आधा दिन ही था ऑफिस में. फिर दो दिन की छुट्टी. क्या करेगी, कहाँ जाएगी... शिखा यह सोच ही रही थी कि अभि ने उसको सिर पर हल्के से पेन मारते हुए कहा "क्या सोच रही हो मेडम?"

अपना लेपटॉप बंद करते हुए शिखा बोली "सोच रही हूँ क्या करुँगी इन दो दिनों की छुट्टी में. तुम्हारा क्या प्रोग्राम है? नेहा के साथ घूमने जा रहे हो कहीं?"

"ना. वह तो अपने गाँव गई है. कज़िन की शादी है."

"ओह!"

"मैं क्या सोच रहा था... तुम कल सुबह तैयार रहना... कुछ ११ बजे... मैं तुम्हें शहर घुमाऊंगा."

"कल? उम्म... मगर..."

"यह उम्म मगर सब छोडो. मैं तुम्हें ११ बजे पिक करूँगा और कोई भी टें टें की न तो किडनैप करके भी ले जाऊंगा!'

शिखा मुस्कुराई. "ठीक है बाबा." 

६ महीने हो गए थे उसे इस शहर में, इस ऑफिस में. अभि उसका सहकर्मी तो था ही, एक अच्छा दोस्त भी बन गया था. नेहा उसकी गर्लफ्रेंड थी, बड़ी अच्छी थी. 

दूसरे दिन अभि अपनी गाडी में आया और शिखा से कहा "चलो आज पहले तो शॉपिंग करते हैं." 

"शॉपिंग क्यों? मुझे तो कुछ नहीं खरीदना."

"पगली! चलो तो सही!" और वे दोनों मॉल गए. कपड़ों की दूकान में शिखा कुर्ती और ड्रेस देख रही थी. अभि ने एक केसरी रंग की कुर्ती दिखाई और कहा "यह पेहेन के देखो. तुम पर बहुत जचेगा यह रंग. जब देखो तब काले और डार्क कपडे पहनती हो. जिसके साथ शॉपिंग करती हो वह तुम्हे टोकते नहीं?" शिखा हलके से मुस्कुराई "मैंने हमेशा अकेले ही शॉपिंग की है." अभि सिर हिलाते बोला "तो अब मैं तुम्हें टोक रहा हूँ और बोल रहा हूँ कि जाओ यह केसरी कुर्ती ट्राई करो." शिखा ने ट्रायल रूम में जा कर वह कुर्ती पहनी. आईने को देख अजीब लग रहा था. बाहर आकर अभि को दिखाया. "बढ़िया! क्लासिक लग रही हो!" उसने वह कुर्ती खरीद ली. 

"चलिए देवी जी अब कुछ पेट पूजा हो जाए. मैं तुम्हे एक मस्त रेस्टोरेंट में ले जाता हूँ... इस शहर में आ कर वहां नहीं खाया तो क्या खाया!" दोनों उस मशहूर रेस्टोरेंट में गए और खाने के साथ बातचीत भी जारी रखी. बाहर आए तो अभि ने कहा "धुप बहुत है, चलो फिल्म देख आते हैं." शिखा कुछ सोचने लगी कि अभि ने एकदम से कहा "मेरी माँ! फिल्म अच्छी लगे तो देखना, न अच्छी लगे तो सो जाना. कम से कम सिनेमा हॉल की ठंडक में तो बैठेंगे."

फिल्म बड़ी अच्छी थी. कुछ सीन पर शिखा खुल के हंस रही थी. अभि उसे देख रहा था. थोड़ा सा ही सही मगर संजीदगी का, ग़म का उसका पर्दा गिर रहा था. फिल्म ख़तम होने पर शिखा एक बच्चे की उत्सकता से बोली "अब?" अभि ने कहा "यहाँ से कुछ दूर एक बार है. बड़ा अच्छा है. वहाँ चलते हैं. तुम पीती तो हो न?" शिखा ने झिझक कर कहा "सिर्फ वाइन।" अभि ने गंभीरता से कहा "शाही लोगों की शाही पसंद!" शिखा हंसने लगी. अभि ने कहा "पहले मैं तुम्हे यहाँ के एक बड़े मंदिर में ले जाता हूँ. सिद्धि विनायक. चलोगी?" दोनों मंदिर गए, फिर वहाँ से बार. शिखा ने दो ग्लास वाइन पीए और अभि ने अपने लिए व्हिस्की मंगवाई. शिखा अब खुल कर मज़ाक करने लगी, बात बात पर हँसे जा रही थी. "अबे लगता है तुम्हें चढ़ गई, चलो निकलते है वरना तुम्हें उठा कर घर ले जाने की ताकत नहीं मुझ में." शिखा फिर भी हँसे जा रही थी "पागल! मुझे नहीं चढ़ी. मैं बस खुश हूँ. वह क्या है न कि पहले कभी भी किसीने..." और वह एकदम से चुप हो गई. बात अचानक बदलते हुए बोली "अभि महाराज! अब हम कहाँ जाएंगे?" अभी मुस्कुराता हुआ बोला "चलो, मरीन ड्राइव!" 

दोनों मरीन ड्राइव गए. वहाँ बैठे, कुछ देर चले, चने खाए, चाय पी. शिखा समुंदर किनारे बैठे जीवन की फिलोसोफी पर बात करने लगी और खुद अपनी ही बात का मज़ाक भी उड़ाती रही. "तुम्हें पान पसंद है?", अभि ने पूछा. "जी हाँ बनारसी बाबू, हमका पान बहुताई पसंद है!" अभि ने उठते हुए कहा "आज के बाद कभी भी तुम्हें बार नहीं ले जाऊंगा! चलो उठो!" स्टेशन के करीब एक पानवाला था. अभि ने दो पान बनवाए. एक शिखा को दिया तो शिखा ने अपने पर्स में वह पान रखा. "अबे पान खाने के लिए लिया है!" "हाँ अभि, मगर मैं यहाँ खाऊँगी तो मेरे दांत और मुँह लाल हो जाएंगे न? और फिर मैं तो अपना टूथब्रश भी नहीं लाइ हूँ!" वह फिर से ज़ोर से हंसने लगी. अभि ने अपने सिर पर हाथ रखते हुए कहा "तो तुम्हें कौनसी किसी पार्टी में जाना है या किसी रिश्तेदार के घर जाना है? निकालो पान और खाओ!" शिखा मुस्कुराई और पान खाया. "बड़ा ही मज़ेदार है!" 

रात के ११ बजने को आ रहे थे. अभि ने कहा "चलो तुम्हें  घर छोड़ आता हूँ. नेहा १ बजे विडिओ कॉल करने वाली है." 

शिखा ने कहा "नहीं, तुमने आज बहुत कुछ किया मेरे लिए. अब घर मैं खुद चली जाउंगी."

"चुपचाप बैठो कार में! अपनी ज़िम्मेदारी पर तुम्हें ले आया हूँ, खुद ही छोड़ दूंगा!"

"ओके सर!" सलामी मारते हुए शिखा ने कहा और कार में बैठ गई. दोनों शिखा के घर पहुंचे. अभि कार से बाहर आया और शिखा को कुर्ती की बेग देते हुए बोला "कैसा रहा दिन?" शिखा की आँखें चमक रही थी. अभि को एकदम से गले लगाया और बोली "थैंक यु सो मच अभि! अब पता चला राजकुमारी बन कर कैसा लगता है! आज तक किसीने ऐसा … " और वह हँसते हँसते चुप हो गई. 

अभि ने उसकी बात पूरी करते हुए कहा "आज तक तुम्हें किसी ने राजकुमारी की तरह ट्रीट नहीं किया न. जानती हो क्यों? तुम खुद को राजकुमारी नहीं समझती तो दूसरों से यह उम्मीद क्यों रखती हो की वे तुम्हें राजकुमारी समझे?" 



Tuesday 9 November 2021

तुम अब लिखते क्यों नहीं?


 

"तुम हमेशा यूँ ही लिखते रहना।"

"क्यों?"

"तुम जब लिखते हो तो तब ऐसा लगता है तुम अपनी कोई बात, कोई एहसास बता रहे हो ... जो शायद आम बातचीत में नहीं बताते।"

"ऐसा कुछ नहीं।"

"तो तुम जो यह कहानियाँ लिखते हो क्या उनमें से किसी भी किरदार के ज़रिये अपना हाल बयान नहीं करते?"

"मेरे लिए वे बस किरदार है मेरी कहानी के। उनके बारे में जो लिखता हूँ वह तो आम इंसान महसूस करते ही रहता है. तुम इतना सोचा मत करो।" और यह कहते उसने फिर से सिगरेट जलाई और मीरा के चेहरे को धुंधला कर गया। मीरा मुस्कुराई और बोली "तुम जब भी लिखते हो तो ऐसा लगता है मैं तुम्हें अब कुछ ओर जानती हूँ."

"तो यह तुम्हारी ग़लतफहमी है मीरा, और कुछ नहीं।" वह उठा और बोला "इतनी बारीकी से मत पढ़ो। मैं लिखूंगा कुछ ओर, तुम समझोगी कुछ ओर, मन में वहम का पेड़ मत लगाओ."

इस बात को अब ६ महीने हो गए थे। मीरा अभी भी उसकी कहानियाँ, उसके लेख पढ़ती मगर अब अपनी राय नहीं देती। और फिर चार महीने तक जब उसने कुछ न लिखा तो मीरा सोच में पड़ गई। तबियत तो ठीक होगी? शाम को लक्ष्मण के घर गई।

"मुझे लगा तुम मेरे घर का पता भूल गई!"

"पागल हो? खैर, यहाँ से गुज़र रही थी तो सोचा तुमसे ... "

वह ज़ोर से हँसने लगा। "यहाँ से गुज़र रही थी मतलब? मेरा घर किसी बाज़ार के बीच तो नहीं और न ही तुम्हारा कोई मेरे अड़ोस पड़ोस में रहता है। खाना ढंग का नहीं बनाती, बहाना तो अच्छा बनाया करो!"

मीरा ने मुंह बिगाड़ा और कहा "तुम्हारी तबियत तो ठीक है न? आजकल कुछ लिखते नहीं तो मैंने सोचा ..."

"इसलिए नहीं लिख रहा कि तुम अगर मुझे पूरा पढ़ लोगी तो मुझ में ऐसा कुछ बाकी नहीं रहेगा जो मेरा अपना हो। जब कुछ ओर बाकी न रहेगा तो तुम चली जाओगी। पूरा खाने के बाद तो थाली को भी छोड़ देते हैं."

Tuesday 26 October 2021

निर्णय


 
वह दोस्तों के साथ बस स्टैंड पर बैठा था. नहीं, किसी को लेने या छोड़ने के लिए नहीं. वहाँ से गुज़रती हर लड़की, हर औरत के कपड़े, बाल और चाल को देखने के लिए. फिर सब दोस्त मिल कर ज़ोर से टिप्पणी करते. कोई उन्हें टोकता या रोकता, संस्कार की दुहाई देता तो उसको गालियाँ देने लगते.

एक दिन, ऐसी ही हरकत करके वह घर आया. देखा तो पत्नी रो रही थी और उसकी माँ उसे चुप होने को कह रही थी. उसने हैरान हो कर पूछा "क्या हुआ? क्यों रो रही हो?"

पत्नी ने सिसकते हुए कहा "आज सब्ज़ी मंडी गई, वहाँ बैंगन खरीद रही थी. कुछ बदमाश लड़कों ने ऐसी गंदी टिप्पणी की … मुझे दोहराते हुए शर्म आती है. फिर मेरे कपड़ों के बारे में भी बोलने लगे. सर से पांव तक ढंकी हुए मैं न जाने उनको किस रूप में नज़र आई …" और वह रो पड़ी.

उसकी माँ ने बहु को अंदर ले जाते हुए कहा "अब यह सब ठीक कर देगा."

वह स्तब्ध रह गया. रात को सो न सका. करवटें बदल बदल कर अपने दिमाग में विचारों का मंथन करता रहा. सुबह होते होते उसने निर्णय ले लिया.

अगले दिन सुबह जब पत्नी ने चाय नाश्ता दिया तो वह बोला "आज से तुम बाज़ार या सब्ज़ी मंडी नहीं जाओगी. कुछ भी लाना हो मुझे कह देना, मैं लेता आऊंगा". पत्नी कुछ कहे उससे पहले वह घर से निकल दिया. काम से 5 बजे छूटने के बाद रोज़ की तरह बस स्टैंड पर गया. उसके दोस्त भी वही आ गए थे. फिर बस से उतरती हुई लाल कपड़ों वाली एक औरत को देख कर उसने कहा "हमें तो हरी मिर्च से ज़्यादा लाल मिर्च ही पसंद है!" और उसके सारे दोस्त ज़ोर से हसने लगे.

बहुत अच्छे



"मेरी आँखें कैसी हैं?"
-"बहुत अच्छी हैं."

"मेरी आवाज़ कैसी है?"
-"बहुत अच्छी है."

"मेरा अंदाज़ कैसा है?"
-"बहुत अच्छा है."

"मेरा दिल कैसा है?"
-"बहुत अच्छा है."

"मैं तुम्हें कैसा लगता हूँ?"
-"बहुत अच्छे लगते हो."

"तो फिर तुम मेरे साथ क्यों नहीं?"
-"तुम तो बहुत अच्छे हो,
क्या करूँ मगर
मेरी किस्मत बहुत बुरी है."


शीतल सोनी

रब ने कहा



नज़रों से तेरी मिला कर नज़रें
पूछा मैंने रब से
“यह हसीन चेहरा क्यों हर पल
मेरी निगाहों के सामने नहीं है?”

सीने से तुझे लगा कर अपने
पूछा मैंने रब से
“मेरा मुकद्दर क्यों इसकी
बाहों में नहीं है?”

हाथों को तेरे थाम कर
पूछा मैंने रब से
“क्यों इसका साथ मेरे
ज़िन्दगी की राह में नहीं है?”

रब ने तुझसे जुदा कर के कहा मुझे
“कैसे दे दूँ तुझे ...
यह तेरी क़िस्मत में नहीं है, सो नहीं है.”


Sheetal S

Friday 22 October 2021

अकेलापन






अकेला इंसान बड़ा मज़बूत होता है. लोग अक्सर अकेलेपन को मायूसी के साथ जोड़ते हैं मगर सच तो यह है कि जिस इंसान को अकेले रहने की आदत पड़ गई हो उसे अपनी खुशी या ग़म बांटने के लिए किसी की ज़रूरत नहीं होती. उदास हुए, रो लिए, खुद ही आँसू पोंछ लिए. किसी कामयाबी पर खुद ही की पीठ थपथपा लिए. पारिवार में या लोगों के बीच रहने वालों के मुकाबले अकेले इंसान को किसी से ज़्यादा अपेक्षा नहीं होती.

वह दोस्ती और साथ तो खूब निभाता है मगर किसी मोह में आसानी से नहीं बंधता कि "तुम नही थे तब भी जी रहा था, तुम नहीं रहोगे तब भी जी लूँगा". और ऐसा भी नहीं कि उनके दिल में सहानुभूति या संवेदनशीलता नहीं. वे दोस्ती तो बड़ी लाजवाब निभाते हैं.

सन्यासी संसार को त्याग कर हिमालय या वन में चले जाते हैं … उस अकेलेपन की ताकत पाने जिससे कुछ इंसान इस दुनिया में जीते हैं.


अकेलेपन में बड़ी ताकत होती है.



शीतल सोनी

सम्मान




वह एक कारखाने में काम करता था. रोज़ अख़बार पढ़ता. बहुत जानकारी मिलती रहती उसे और वह इस जानकारी के आधार पर कई धारणाएं बना लेता. सरकार कैसे चलनी चाहिए, दर्ज़ी को कपड़े कैसे सीने चाहिए, ट्रेन कैसे चलनी चाहिए … यहाँ तक कि चाय कैसे बनानी चाहिए … सारे विषय पर विचार घड़े हुए थे. यदि कोई तर्क वितर्क करता तो वो लड़ झगड़ लेता, डरा धमका देता.

समय बीतता गया … बच्चे बड़े हुए, कमाने लगे, उनके भी बच्चे हुए. नौकरी छोड़ दी. निवृति ले ली. सिर्फ नौकरी से.

एक साल उसके प्रांत में बाढ़ आई. गाँव तबाह हो गया. मगर मानव की प्रकृति है पुनःस्थापन करने की. अपनी क्षमता के अनुसार हर कोई इस पुनःनिर्माण में जुड़ गया. थवाई, मिस्त्री, बढ़ई काम करने लगे. वह हर किसी के पास जाकर उन्हें बताता कैसे काम करना चाहिए. गांव फिर से बस गया. पाठशाला खुली. वहाँ कार्यक्रम रखा गया जहां गाँव के पुनःनिर्माण करने वालों को सम्मानित किए जाना था.

वह भी गया. क्यों न जाए … गांव के बुज़ुर्गों में गिना जाता था. उसके पोते पोती मंच पर आए और अपने दादा के सम्मान में बोले "हमारे दादा का गाँव के पुनःनिर्माण में बहुत बड़ा योगदान है. उन्होंने सबको अपना अभिप्राय दिया और जो सहमत नहीं हुआ उनको बड़ा डराया धमकाया."


वह गर्वित हो कर मुस्कुराने लगा, फुले नहीं समाया.


~ शीतल सोनी

आठ ईंट

 




मधु १८ साल की थी जब उसकी शादी हो गई थी. ज़्यादा पढ़ लिख नहीं पाई थी कि क्योंकि गरिबी ने शिक्षा से पहले आमदनी का रास्ता दिखा दिया था. वह लोगों के घर बर्तन माँझती थी. शादी के तीन साल में दो बच्चे और पाँच साल बाद पति मर गया. रिश्तेदारों के पैसों की मदद चंद दिन ही चलनी होती है. बच्चों का भरण पोषण करने के लिए वह वापिस काम पर लग गई. फिर आई महामारी. लोगों ने उसको घर आने से मना कर दिया कि बीमारी ऐसे ही फैलती है. गरीब बीमारी से बाद में, भूख से पहले मरता है. एक इमारत बन रही थी वहां पर वह ईंट उठाने का काम करने लगी. सिर पर छः ईंटो के बोझ से अपने पेट का बोझ कम कर रही थी.

इमारत का मालिक एक दिन वहाँ आया. मधु ने हाथ जोड़ कर कहा "पैसे कुछ बढ़ाइए साहिब जी." मालिक ने कहा "छः की जगह आठ ईंट उठाया करो". वह जा कर गाड़ी में बैठ गया. उफ़ यह गर्मी. जेब से मोबाइल निकाला. देखा तो भारत की मीराबाई चनु ने ओलिपमिक में भारोत्तोलन के लिए रजत पदक जीता था. मालिक ने तुरंत ट्वीट किया "कांग्रचुलेशन्स मीराबाई! धिस इस रियल वुमन एम्पावरमेंट!"


~ शीतल सोनी





प्रेम नहीं ...



आप उनसे प्रेम करते हैं. आप उन्हें यह बात बताते हैं. वे आपको साफ मना कर देते हैं और कहते हैं कि उनके दिल में आपके लिए ऐसे कोई एहसास नहीं है.

आप फिर उनकी उलाहना करते हैं, अपने दोस्तों के साथ उनका मज़ाक उड़ाते हैं, उन्हें ज़लील करने का और सताने का कोई मौका नहीं छोड़ते. उन्हें कोसते रहते हैं.

तो बात दूं यह प्रेम नहीं, वासना है. क्योंकि अगर सचमुच में प्रेम होता तो आप उनकी इच्छा का मान रखते. और वे भी यह जानते थे इसलिए आपसे दूरी बना ली होगी. रहा सहा जो भी भाव था वह आपकी हरकतों से घृणा में बदल जाता है. फिर उनको दोष क्यों देना? जब कि आपका प्रेम प्रेम नहीं, वासना ही है.

हम अपने शब्द वापिस नहीं ले सकते.







हम अपने शब्द वापिस नहीं ले सकते.


कई अनुमान लगाते हैं. कई पूर्वधारणा बना लेते हैं. किसी की बातों में आ कर बहुत सारे अपशब्द बोल देते हैं उस व्यक्ति को. ओरों को भी उकसाते हैं. सत्य जाने बिना उस व्यक्ति को सब के सामने बदचलन, झूठा, धोखेबाज़ कह देते हैं. स्वयं को दूध का धुला बताने के चक्कर में उस पर कीचड़ उछालते हैं. या अपनी कोई खीज निकालने के लिए ही ऐसा करते हैं.


समय बीतता है. और एक दिन आपको पता चलता है कि उस व्यक्ति ने कभी आपके लिए कुछ नहीं कहा, बस आप ही गलत समझ बैठे. आपको जो दिखाया गया, जैसे भड़काया गया वैसे ही आप बहक गए. आपकी सारी धारणाएं झूठी और सारे अनुमान गलत निकले. मगर अब क्या करें? उन्हें अपशब्द बोलने का, उनकी निंदा करने का, उनका उपहास करने का जो कर्म आप कर चुके हैं उसका फल तो भुगतना ही होगा. इसलिए उचित यही रहेगा कि जब तक आपको किसी भी विषय के सारे पक्षो का पूर्ण ज्ञान न हो तब तक अपने अंदाज़े, अनुमान, अपने मत अपने तक ही सीमित रखें. क्योंकि …


हम अपने शब्द वापिस नहीं ले सकते.


~ शीतल सोनी

अलमारी या तिजोरी?



वह अक्सर अपनी बातें मुझसे कहता. काम में तरक्की हुई हो, घर पर कोई नई चीज़ खरीदी हो, कोई छोटी मोटी घटना हुई हो … सब बता दिया करता। मैं भी उसकी सारी बातें सुनती और अपने दिल के एक कोने में रख देती। बिल्कुल वैसे जैसे कोई अलमारी में चीज़ संभाल कर रख देता है।


और शायद हम सब किसी न किसी के लिए अलमारी ही हैं। कई बार यूँ भी होता है कि जिसने चीज़ रखी हो वह भूल गया हो पर हमें याद रहती है … क्योंकि हम उस चीज़, उस बात को संभाले हुए हैं। कुछ लोग ख़याल रखते हैं कि उनमें रखी हुई चीज़ को देखने का हक़ सिर्फ रखने वाले को होता है। हर किसी को बताया नहीं करते कि देख मुझ में किसने क्या रखा है। और कुछ लोग तो खैर खुली अलमारी से होते हैं … कोई अपनी बात बताता है और साथ में दूसरों की बातें देख लेता है।


और कुछ बहुत अज़ीज़ लोग होते हैं जो तिजोरी होते हैं। आप उनसे किसी ओर के बारे में कुछ जान ही नहीं सकते। बड़ी हिफाज़त से संभाल रखते हैं आपकी हर बात, हर चीज़।


तो, आप क्या हैं? अलमारी या तिजोरी?


शीतल सोनी

Thursday 21 October 2021

जाओ तुमसे बात ही नहीं करनी मुझे.






जाओ तुमसे बात ही नहीं करनी मुझे.
 
तुमसे बाते करूंगी. तुम भी बात करोगे. तुम्हें मेरी बातें अच्छी लगेगी. सब को अच्छी लगती है. फिर हम मिलेंगे. दोस्त बनेंगे. एक दूसरे का हाल पूछते रहेंगे. सुख दुःख बांटेंगे. रोज़मर्रा की बातें करेंगे, मौसम की बातें करेंगे, लोगों की बातें करेंगे, देश की बातें करेंगे, दिल की बातें करेंगे. फिर कुछ वक़्त बाद तुम्हें मेरा हाल पूछना, तबियत पूछनी … सब खटकने लगेगा. मैं फिर भी तुम्हारी ख़ैर खबर पूछती रहूंगी, खयाल रखूंगी. क्या करूँ? पुरानी आदत है मेरी और यह आदत जाती नहीं. फिर तुम गुस्से में मुझसे कहोगे "इतना क्यों पूछती रहती हो. चैन से जीने दो थोड़ा". मैं दंग रह जाऊंगी. कभी सोचा ही न था कि तुम्हारे चैन की दुश्मन बनूँगी. मैं तुमसे दूरी बना लुंगी. तुमसे बातें नहीं करूंगी. कुछ दिन तो तुम आराम महसूस करोगे. फिर तुम सोचोगे कि मैं बात क्यों नहीं कर रही तुमसे. १० - १५ दिन इंतेज़ार करोगे. फिर सामने से मुझे मेसेज करोगे "बड़े लोग! मेसेज करने का समय नहीं या इरादा नहीं?" मैं तुम्हारा मेसेज पढ़ कर सोच में पड़ जाऊंगी कि तुमने ही कहा था तुम्हें चैन से जीने दूँ. मेसेज करूँ तो तकलीफ, न करूँ तो भी तकलीफ. 

मुझे इस उलझन में नहीं पड़ना. इसलिए … जाओ तुमसे बात ही नहीं करनी मुझे.




~ शीतल सोनी

मौसी जी

 



वे मेरे पापा की मौसी थी. मगर हम बच्चे भी उन्हें मौसी ही बुलाते थे. ज़रा बातूनी थी और उनका सामान्य ज्ञान भी अच्छा भला था. कभी कभी किसी त्योहार पर, जन्म, विवाह व मरण प्रसंग पर अपने गाँव से आती. इस बार मरण प्रसंग था.

मौसी जी के एक रिश्तेदार दिल का दौरा पड़ने से चल बसे थे. नहीं, चल बसे नहीं. "प्रभु के चरणों" को पा गए थे. यह बात बड़े बुज़ुर्ग अक्सर कहते. वे मृतक के घर शोक मनाने गई. अंतिम क्रिया के पश्चात वे घर आई. पापा ने उनसे एक दिन रुक जाने को कहा. वे बोली "ना बेटा. मुकेश के बेटे की शादी है हफ्ते बाद. बहुत तैयारियां करनी है. सारी मिठाइयाँ मेरे बताए गए तरीके से बनेंगी."

माँ ने मौसी जी के लिए रोटी, आलू की सूखी सब्ज़ी, हरी चटनी और आचार एक डिब्बे में भर कर दिया क्योंकि उनका गांव दस घण्टे दूर था. बीच राह में कहीं खाने की व्यवस्था न हुई तो भी मुश्किल न हो. मौसी मेरी माँ से बोली "बेटा, कुछ सुपारी और सौंफ भी देना. और पास की दुकान से कुछ चिक्की मंगवा देना". माँ ने भाई से कहा और वह ले आया. हम भाई बहनों को मौसी के रवैये पर आश्चर्य हुआ. पापा उन्हें बस स्टैंड तक छोड़ आए.

जब पापा वापस घर आए तो भाई ने कहा "मौसी जी तो मानो पिकनिक के लिए आई हो. ऐसा लगा ही नहीं कि वे किसी के मरण का सोग मनाने आई हो."

पापा ने कहा "मैंने समझाया है न कि पूरी बात जाने बिना किसी के लिए कोई अभिप्राय मत बनाओ. रही बात मौसी की. उन्होंने शादी के दस साल बाद अपना पति खोया है, अपनी 4 साल की बेटी की मृत्यु देखी है. उन्होंने जश्न भी मनाए हैं और मातम भी. अपने जीवन में बहुत सारे जन्म व मरण देखे हैं और इन सब से इतना सीख लिया है जन्म और मरण रुकते नहीं, चलते रहेंगे. ज़रूरी यह है कि जीवन चलता रहे."