Thursday 21 October 2021

मौसी जी

 



वे मेरे पापा की मौसी थी. मगर हम बच्चे भी उन्हें मौसी ही बुलाते थे. ज़रा बातूनी थी और उनका सामान्य ज्ञान भी अच्छा भला था. कभी कभी किसी त्योहार पर, जन्म, विवाह व मरण प्रसंग पर अपने गाँव से आती. इस बार मरण प्रसंग था.

मौसी जी के एक रिश्तेदार दिल का दौरा पड़ने से चल बसे थे. नहीं, चल बसे नहीं. "प्रभु के चरणों" को पा गए थे. यह बात बड़े बुज़ुर्ग अक्सर कहते. वे मृतक के घर शोक मनाने गई. अंतिम क्रिया के पश्चात वे घर आई. पापा ने उनसे एक दिन रुक जाने को कहा. वे बोली "ना बेटा. मुकेश के बेटे की शादी है हफ्ते बाद. बहुत तैयारियां करनी है. सारी मिठाइयाँ मेरे बताए गए तरीके से बनेंगी."

माँ ने मौसी जी के लिए रोटी, आलू की सूखी सब्ज़ी, हरी चटनी और आचार एक डिब्बे में भर कर दिया क्योंकि उनका गांव दस घण्टे दूर था. बीच राह में कहीं खाने की व्यवस्था न हुई तो भी मुश्किल न हो. मौसी मेरी माँ से बोली "बेटा, कुछ सुपारी और सौंफ भी देना. और पास की दुकान से कुछ चिक्की मंगवा देना". माँ ने भाई से कहा और वह ले आया. हम भाई बहनों को मौसी के रवैये पर आश्चर्य हुआ. पापा उन्हें बस स्टैंड तक छोड़ आए.

जब पापा वापस घर आए तो भाई ने कहा "मौसी जी तो मानो पिकनिक के लिए आई हो. ऐसा लगा ही नहीं कि वे किसी के मरण का सोग मनाने आई हो."

पापा ने कहा "मैंने समझाया है न कि पूरी बात जाने बिना किसी के लिए कोई अभिप्राय मत बनाओ. रही बात मौसी की. उन्होंने शादी के दस साल बाद अपना पति खोया है, अपनी 4 साल की बेटी की मृत्यु देखी है. उन्होंने जश्न भी मनाए हैं और मातम भी. अपने जीवन में बहुत सारे जन्म व मरण देखे हैं और इन सब से इतना सीख लिया है जन्म और मरण रुकते नहीं, चलते रहेंगे. ज़रूरी यह है कि जीवन चलता रहे."

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