Tuesday 25 August 2020

भक्ति


छाया बहुत खुश थी. पाँच दिन बाद महाशिवरात्रि थी और कल पंडित जी मूर्ति लेने आएँगे और मंदिर में उसकी स्थापना करेंगे. मूर्ति. शिवजी की मूर्ति. सब कहते थे छाया के हाथों में जादू था और उसे जैसे प्रभु का वरदान मिला हो … उसकी बनाई हुई मूर्तियों में जैसे प्रभु साक्षात बसते हो. और इसलिए चौधरी जी की पत्नी ने छाया से महादेव की मूर्ति बनाने को कहा, जिसकी स्थापना वह अपनी हवेली के मंदिर में करेंगी. 


छाया कमरे में गई और दीया जलाया. वह मूर्ति को देख रही थी … महादेव की जटाएँ, उनके तीसरे नयन, गले में सर्पमाला, हाथ में त्रिशूल और त्रिशूल पर डमरू. और कहीं धीमी से डमरू की ध्वनि सुनाई देने लगी. छाया ने महादेव की आँखों में देखा … चेतना देखी. उसे दिव्यता की अनुभूति होने लगी. और मूर्ति से आवाज़ आई "क्या देख रही हो छाया?" 

छाया चौंक गई. "प्रभु! आप साक्षात!" 

"हाँ छाया, तुमसे कुछ पूछने आया हूँ."

"मैं तो धन्य हो गई भगवन!"

"तुमने मेरी व अन्य देवों की बहुत मूर्तियां बनाई है. परन्तु इस बार तुमने मिट्टी, पानी, भक्ति के उपरांत द्वेष क्यों मिलाया?" 


"द्वेष?"

"हाँ द्वेष. जो भाव तुम्हारे मन में उत्तम रहता है उसका प्रभाव तुम्हारी शिल्प कला पर पड़ता है. तुमने अपने मित्रों के संग निर्मला के कपड़ो पर अट्टहास किया. उस पर पत्थर फेंके. तुमने विनोद के बांसुरीवादन पर उपहास किया. उस पर भी पत्थर फेंके. तुमने विधि की दरिद्रता का मज़ाक उड़ाया. उस पर भी पत्थर फेंके. क्यों छाया? तुम्हारे और तुम्हारे मित्रगण में इतना द्वेषभाव क्यों?"


छाया ने हाथ जोड़ते हुए कहा "द्वेषभाव नहीं प्रभु. हम तो केवल अपना मन बहलाने के लिए उन पर हंस रहे थे. हमें उन सब से कोई व्यक्तिगत शत्रुता नहीं."

"किसी को दुखी करने से तुम्हारा मन बहलता है? निर्मला की माँ दिन रात सबके घरों को साफ करके पैसे कमाती है. इतने की वह अपने और परिवार के जीवन की मूल आवश्यकता पूरी कर सके. उसमें से कुछ पैसे बचा कर उसने निर्मला के लिए नए कपड़े लिए थे. तुम सब ने पत्थर निर्मला पर नहीं, उसकी माँ की मेहनत पर मारे. निर्मला घर जा कर रोइ और उसे दुखी देख उसकी माँ भी रोइ. मन बहल गया तुम सब का?"


"ओह! मैं यह नहीं जानती थी अन्यथा …"

"तुम सब ने विनोद के बाँसुरिवादन का मज़ाक उड़ाया. उस पर पत्थर फेंके. विनोद दिन भर खेत में काम करता है. माँ नहीं है और पिता अंधे हैं. अपने छोटे भाई को अच्छी विद्यालय में उच्च शिक्षा दिलवा रहा है. घर आ कर खाना बनाता है, अपने पिता को खिलाता है, घर के सारे काम करता है. किसी से कोई मदद नहीं मांगता है. उसके जीवन में सारी वेदनाओं का सार वह बांसुरी में पिरोता है. किसीको अड़चन रूप नहीं बनता. फिर उस पर क्यों पत्थर फेंके?"


"भगवन, वह सुर में बांसुरी नहीं बजाता है तो …"

"सूर में? यह निश्चय करने के लिए तुम सब में से कौन श्रेष्ठ संगीतकार है? क्या वह किसी प्रतियोगिता में हिस्सा ले रहा था? और विधि? उसकी दरिद्रता तुम्हारे मन में मानवता की दरिद्रता से तो भली ही है. वह दिन में एक ही बार भोजन करती है पर उसमें से भी राम-रोटी निकाल कर पशुओं को खिलाती है. उसकी दरिद्रता पर पत्थर मार कर तुमने कौनसा धनाढ्य मिला?"


"भगवन! मैं और मेरे मित्रगण इन सब की व्यथा से अनजान थे. हम पत्थर उन्हें चोट पहुंचाने के लिए नहीं मारते हैं. हम तो केवल उनकी दुर्बलता, वर्ण और कला पर हंस रहे थे."

"जो मनुष्य रंग, वर्ण, रूप, कद-काठी, धनाढ्य, सक्षमता, जाति, बुद्धिमत्ता, साक्षरता पर भेदभाव करे वह मेरा भक्त हो ही नहीं सकता!"


"परंतु प्रभु मेरे मित्रगण …"

और प्रभु क्रोधित स्वर में बोले "तो जाओ छाया! तुम अक्षय, विनय, हिना, दिशा, साक्षी की ही भक्ति करो!" यह कह कर वह अदृश्य हो गए. छाया चिल्लाई "नहीं भगवन!"


पानी टपकने की आवाज़ से वह जाग गई. प्रातः हो रही थी. यह कैसा दुःस्वप्न था? विचित्र! आज के दिन ऐसा स्वप्न आना उसे अशुभ सा लगा. पंडित जी मूर्ति को ले जाएं उससे पहले वह प्रभु को खीर का भोग चढ़ा देगी … यह सोच कर उसने नाहा धो कर खीर बनाई. बड़े प्रेम से. और द्वार खटकने की आवाज़ आई. पंडित जी आ गए होंगे. उसने द्वार खोला. पंडित जी, पंडिताइन जी और चौधराइन जी का स्वागत किया. उन्हें फल दिए और कहा "आप मूर्ति को ले जाएं उससे पहले मैं भगवन को खीर का भोग लगा दूँ?"

पंडित जी बोले "अवश्य पुत्री!"


हाथों में खीर की कटोरी लिए वे सब मूर्ति वाले कक्ष में गए. और सब अवाक. मूर्ति नहीं थी. वहाँ तो पत्थरों का छोटा ढेर था. 


2 comments:

  1. मानव स्वभाव का चित्रण करती प्रेरक कृति

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