Tuesday 9 November 2021

तुम अब लिखते क्यों नहीं?


 

"तुम हमेशा यूँ ही लिखते रहना।"

"क्यों?"

"तुम जब लिखते हो तो तब ऐसा लगता है तुम अपनी कोई बात, कोई एहसास बता रहे हो ... जो शायद आम बातचीत में नहीं बताते।"

"ऐसा कुछ नहीं।"

"तो तुम जो यह कहानियाँ लिखते हो क्या उनमें से किसी भी किरदार के ज़रिये अपना हाल बयान नहीं करते?"

"मेरे लिए वे बस किरदार है मेरी कहानी के। उनके बारे में जो लिखता हूँ वह तो आम इंसान महसूस करते ही रहता है. तुम इतना सोचा मत करो।" और यह कहते उसने फिर से सिगरेट जलाई और मीरा के चेहरे को धुंधला कर गया। मीरा मुस्कुराई और बोली "तुम जब भी लिखते हो तो ऐसा लगता है मैं तुम्हें अब कुछ ओर जानती हूँ."

"तो यह तुम्हारी ग़लतफहमी है मीरा, और कुछ नहीं।" वह उठा और बोला "इतनी बारीकी से मत पढ़ो। मैं लिखूंगा कुछ ओर, तुम समझोगी कुछ ओर, मन में वहम का पेड़ मत लगाओ."

इस बात को अब ६ महीने हो गए थे। मीरा अभी भी उसकी कहानियाँ, उसके लेख पढ़ती मगर अब अपनी राय नहीं देती। और फिर चार महीने तक जब उसने कुछ न लिखा तो मीरा सोच में पड़ गई। तबियत तो ठीक होगी? शाम को लक्ष्मण के घर गई।

"मुझे लगा तुम मेरे घर का पता भूल गई!"

"पागल हो? खैर, यहाँ से गुज़र रही थी तो सोचा तुमसे ... "

वह ज़ोर से हँसने लगा। "यहाँ से गुज़र रही थी मतलब? मेरा घर किसी बाज़ार के बीच तो नहीं और न ही तुम्हारा कोई मेरे अड़ोस पड़ोस में रहता है। खाना ढंग का नहीं बनाती, बहाना तो अच्छा बनाया करो!"

मीरा ने मुंह बिगाड़ा और कहा "तुम्हारी तबियत तो ठीक है न? आजकल कुछ लिखते नहीं तो मैंने सोचा ..."

"इसलिए नहीं लिख रहा कि तुम अगर मुझे पूरा पढ़ लोगी तो मुझ में ऐसा कुछ बाकी नहीं रहेगा जो मेरा अपना हो। जब कुछ ओर बाकी न रहेगा तो तुम चली जाओगी। पूरा खाने के बाद तो थाली को भी छोड़ देते हैं."

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