Friday 9 September 2016

सुप्रीम कोर्ट -3

बम फटा! भूचाल आया! बिजली गिरी! पापा की एक दहाड़ इतना असर रखती थी. दीदी और मैं सुन्न से खड़े रह गए. "दोनों मक्खियों की तरह कब से भिन्न-भिन्ना रही हो. एक तो मुझे मेरा केल्क्युलेटर कहीं भी मिल नहीं रहा! काम अटका पड़ा है. कल सुबह तक यह डिज़ाइन दिखानी है. और तुम दोनों मेरे सिर पर नाच रही हो. जाओ यहाँ से!"
मैं और दीदी पापा को और एक दूसरे को देख रहे थे.
"अभी तक यहीं खड़ी हो? जाओ!" यह कह कर पापा मुड़ गए, केल्क्युलेटर ढूंढने लगे. दीदी और मैं सहमे हुए चुपचाप बाहर आ गए. समझ में नही आ रहा था कि पापा इतना गुस्से में क्यों हो गए. हम ने तो सिर्फ उनसे केस सुलझाने को कहा था. पापा का गुस्सा हमसे बर्दाश्त ही नहीं होता. उनका स्नेह हमें तपती धुप में घने छाँव सा महसूस होता, वहीँ उनका गुस्सा तपती हुई ज़मीन पर पैर रखने जैसा लगता. तपती ज़मीन पर ठंडा पानी डालने की ज़रुरत थी. "पापा गुस्से में हैं", मैंने अपनी आवाज़ ढूंढते हुए कहा. दीदी मेरे सामने ऐसे देख रही थी मानो अभी बोलेगी "मैं अंधी नहीं हूँ." मगर दीदी ने ऐसा कुछ कहा नहीं. दो पल के लिए हम दोनों चुप खड़ी थीं. सोच रही थीं कि क्या करें कि जिससे पापा का गुस्सा कम हो जाए.
"पापा को केल्क्युलेटर नहीं मिल रहा, अगर मिल जाए तो ..."
"चलो ढूंढते हैं."
"मगर दीदी, ऑफिस में तो पापा हैं."
"तो बाकी घर में ढूंढते हैं".
हम दोनों पापा मम्मी के कमरे में गए. पापा कई बार शेर-बाज़ार को लेकर उनके निवेश का हिसाब करते तब केल्क्युलेटर अक्सर यहाँ ले आते. मैंने बेड के नीचे देखा. दीदी ने ड्रॉवर में देखा. केल्क्युलेटर कहीं नहीं मिला.
फिर हम संजय के कमरे में गए. वह फुटबॉल प्रैक्टिस के लिए गए था. उसका कमरा हमेशा बिखरा पड़ा रहता. हम बहनों से साफ़ करवाता. बड़े भाई होने की दादागिरी. हम दो बहनें संजू से बेहतर जानती थी कि उसकी चीज़ें कहाँ पड़ी हैं. उसका कमरा साफ़ करने के लिए हमें वेतन में उसकी विडियो गेम्स खेलने मिलती. हम दोनों ढूंढने लगी पर केल्क्युलेटर यहाँ भी नहीं मिला. अब?



(... to be continued)

No comments:

Post a Comment