Monday 26 September 2016

गुलाब


मेरा उससे देखना महज़ इत्तेफ़ाक़ नहीं हो सकता था. ऐसा कैसे हो सकता है कि किसी को सिर्फ एक पल के लिए भी देख लिया तो उनकी छवि इस कदर मन में बैठ जाये कि वह ख्यालों में हो कर भी रूबरू सा लगे.
सोचा कि उनसे मिल कर दिल की बातें साफ़ कर दूँ. शायद यह ही मेरी सबसे बड़ी नादानी थी क्योंकि जब उनसे अपने प्रेम का इज़हार किया तो उन्होंने चिढ़ कर मुंह फेर लिया.
उनके घर का पता मिला. हाथों में गुलदस्ता लिए उनसे माफ़ी मांगने उनसे मिलने गई. दरवाज़े पर दस्तक दी. मगर शायद घर पर कोई नहीं था. वह गुलदस्ता वहीं चौखट पर रख आई. गुलदस्ते में एक चिट्ठी भी रखी - "हमेशा खुश रहिये, आबाद रहिये". शाम को फिर से एक गुलदस्ता लिए उनके घर पर पहुंची. मगर किसी ने दरवाज़ा नहीं खोला. परदे बंद तो थे मगर उनसे झलकती हुई कमरे की रौशनी में कुछ अधूरे से साये सा नज़र आया. शायद ... खैर, वह गुलदस्ता भी वहीं चौखट पर छोड़ आई. उसमें भी एक चिट्ठी रख दी, उसी संदेश के साथ कि "हमेशा खुश रहो, आबाद रहो".
अब यह सिलसिला काफी दिनों तक चलता रहा. सुबह और शाम उनके घर की चौखट पर गुलदस्ता तो नहीं, अलबत्ता गुलाब का एक फूल छोड़ आती, वही चिट्ठी और संदेश के साथ. कभी सुबह का रखा हुआ फूल शाम तक वहीं चौखट पर पड़ा हुआ मिलता.
फिर एक दिन एक महफ़िल में उनसे फिर से मुलाकात हुई. न जाने क्यों मुझे ऐसा लगा कि वे मुझे देख कर ज़रा सा चौंक से गए हो. उनसे मुस्कुराते हुए कहा "रोज़ आपके लिए गुलाब का फूल ले आती हूँ. आपके घर पर कोई नहीं होता इसलिए वह गुलाब  आपके घर की चौखट पर ही छोड़ देती हूँ. और साथ ..."
"जी मुझे तो न आज तक कोई गुलदस्ता मिला न कोई गुलाब".
मैं उनके इस जवाब से अवाक सी रह गई. ऐसा कैसे हो सकता था? "आपने घर के किसी सदस्य से या कोई नौकर से पुछा?"
"अगर कोई गुलाब या गुलदस्ता मिलता तो वे मुझे ज़रूर बताते". यह कह कर वे मुड़ गए.
मेरे लिए अब आगे कुछ कहने को रहा ही नहीं था. मैं उस महफ़िल से घर जल्दी ही लौट आई. सबके सामने रोया नहीं करते ना. ऐसा कैसे हो सकता था कि उन्हें ना मेरा गुलाब और ना मेरा कोई संदेश मिल रहा था? दिल में ख़याल करवटें बदल रहे थे और बिस्तर पर मैं ... नींद तो जैसे खुद ही कहीं जाकर सो गई हो.
अगले दिन बाज़ार गई तो फूलवाला मुस्कुराते हुए गुलाब का फूल देने ही वाला था कि ... "रहने दीजिये. मुझे नहीं चाहिए". उसे अपने कानो सुने पर विश्वास न हुआ और कहा "जी बिलकुल ताज़ा गुलाब है. इसकी महक ...". मैंने उससे अचानक टोकते हुए कहा "कहा ना, नहीं चाहिए". यह कह कर आगे चल दी. जब तक उस फूलवाले से गुलाब खरीदती रहती थी मेरी वाणी भी जैसे मृदु और स्वाभाव भी महक रहा था. मगर जिसके लिए वह गुलाब खरीद रही थी उसने ही जब साफ़ इनकार कर दिया था तो मैं क्यों अब उस फूल को उनके घर की चौखट पर रखकर उसका अपमान करूँ? दीवानगी ही थी मेरी, खुद को समझा लुंगी. ना अब उनके घर से और ना उनकी गली से गुज़रूंगी.
कुछ दस सिन बाद बाज़ार में उनकी पड़ोसन मिली. मैं जब गुलाब का फूल लेकर जाती थी तो उनकी पड़ोसन अक्सर अपने आँगन के पौधों में पानी डालते हुए मेरी तरफ देखती और मुस्कुराती.
"कैसी हो बेटी?", बड़े प्यार से उन्होंने पुछा.
"जी मैं ठीक हूँ. आप कैसी हैं?"
"बस ठीक हूँ. क्या बात है, आजकल तुम नहीं आती गुलाब लेकर?"
गुलाब के फूल के साथ लगे हुए कांटे की तरह सीधे दिल में चुभ गया उनका यह सवाल. यह तो अच्छा था कि इतने सालों से आदत थी कि आँखों को किसी के सामने नम नहीं करती थी.
"जी ... वो मैं ... जी आजकल मैं ... मैं बड़ी व्यस्त रहती हूँ".


उनका चेहरा देख कर ऐसा लगा कि उन्हें मेरी बातों पर जैसे पूरा विश्वास नहीं हो रहा था. "अच्छा. जब यह व्यस्तता पूरी हो जाए तो ज़रूर आना. वह रोज़ खिड़की से झांकता रहता है, तुम्हारा और तुम्हारे गुलदस्ते का इंतज़ार करता है".

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