Thursday 1 September 2016

कब तक रूठे रहोगे?


कितनी बार माफ़ी मांग चुकी हूँ. मगर जब कोई फिर भी नहीं मानता, रूठा रहता है तब खयाल आता है कि रूठने की इन्तहा क्या हो सकती है? कोई इतना कैसे रूठा रह सकता है? एक मैं हूँ जो किसी से रूठती ही नहीं ... इस डर से कि कहीं कोई मनाने ही न आया तो? दरअसल यूँ हुआ है कि जब मैं किसी से नाराज़ थी और वह माफ़ी मांगने आया था तब मैंने एक न सुनी. और एक इंसान ऐसा भी था जो मुझसे रूठा था पर मैंने मनाने की कोई ख़ास कोशिश नहीं की. न माफ़ कर सकी और न माफ़ी मांग सकी ... और वे इंसान जब हमेशा छोड़ कर चले गए तब मेरे लाख चीखने चिल्लाने पर भी उन तक मेरी आवाज़ नहीं पहुंची. जीवन और मृत्यु के बीच की दीवार अभेद्य जो है. मैं दीवार पीटती रही. न माफ़ी मिली और न कह सकी कि जाओ माफ़ किया. यह खेद बड़ी पीड़ा देती है. तो हो सकता है जिन्हें मैं मना रही हूँ उन्हें अपने जीवन में ऐसा कोई अनुभव ही न हुआ हो. अच्छा है. ऐसा अनुभव किसी दुश्मन को भी न हो, फिर यह तो मेरे अज़ीज़ है. कोई बात नहीं. वे नादान है, मैं नहीं. वे रूठे रहना चाहते हैं, उनकी मर्ज़ी. उन्हें मनाने की मैं कोई कोशिश नहीं छोडूंगी. मगर आप सब से एक राज़ की बात कहूँ? एक दिन मैं भी रूठ जाऊंगी. और वादा करती हूँ जिस दिन रूठ गई किसी के मनाये नहीं मानूँगी. दीवार इजाज़त ही नहीं देगी.

1 comment: