Monday 26 September 2016

गुलाब


मेरा उससे देखना महज़ इत्तेफ़ाक़ नहीं हो सकता था. ऐसा कैसे हो सकता है कि किसी को सिर्फ एक पल के लिए भी देख लिया तो उनकी छवि इस कदर मन में बैठ जाये कि वह ख्यालों में हो कर भी रूबरू सा लगे.
सोचा कि उनसे मिल कर दिल की बातें साफ़ कर दूँ. शायद यह ही मेरी सबसे बड़ी नादानी थी क्योंकि जब उनसे अपने प्रेम का इज़हार किया तो उन्होंने चिढ़ कर मुंह फेर लिया.
उनके घर का पता मिला. हाथों में गुलदस्ता लिए उनसे माफ़ी मांगने उनसे मिलने गई. दरवाज़े पर दस्तक दी. मगर शायद घर पर कोई नहीं था. वह गुलदस्ता वहीं चौखट पर रख आई. गुलदस्ते में एक चिट्ठी भी रखी - "हमेशा खुश रहिये, आबाद रहिये". शाम को फिर से एक गुलदस्ता लिए उनके घर पर पहुंची. मगर किसी ने दरवाज़ा नहीं खोला. परदे बंद तो थे मगर उनसे झलकती हुई कमरे की रौशनी में कुछ अधूरे से साये सा नज़र आया. शायद ... खैर, वह गुलदस्ता भी वहीं चौखट पर छोड़ आई. उसमें भी एक चिट्ठी रख दी, उसी संदेश के साथ कि "हमेशा खुश रहो, आबाद रहो".
अब यह सिलसिला काफी दिनों तक चलता रहा. सुबह और शाम उनके घर की चौखट पर गुलदस्ता तो नहीं, अलबत्ता गुलाब का एक फूल छोड़ आती, वही चिट्ठी और संदेश के साथ. कभी सुबह का रखा हुआ फूल शाम तक वहीं चौखट पर पड़ा हुआ मिलता.
फिर एक दिन एक महफ़िल में उनसे फिर से मुलाकात हुई. न जाने क्यों मुझे ऐसा लगा कि वे मुझे देख कर ज़रा सा चौंक से गए हो. उनसे मुस्कुराते हुए कहा "रोज़ आपके लिए गुलाब का फूल ले आती हूँ. आपके घर पर कोई नहीं होता इसलिए वह गुलाब  आपके घर की चौखट पर ही छोड़ देती हूँ. और साथ ..."
"जी मुझे तो न आज तक कोई गुलदस्ता मिला न कोई गुलाब".
मैं उनके इस जवाब से अवाक सी रह गई. ऐसा कैसे हो सकता था? "आपने घर के किसी सदस्य से या कोई नौकर से पुछा?"
"अगर कोई गुलाब या गुलदस्ता मिलता तो वे मुझे ज़रूर बताते". यह कह कर वे मुड़ गए.
मेरे लिए अब आगे कुछ कहने को रहा ही नहीं था. मैं उस महफ़िल से घर जल्दी ही लौट आई. सबके सामने रोया नहीं करते ना. ऐसा कैसे हो सकता था कि उन्हें ना मेरा गुलाब और ना मेरा कोई संदेश मिल रहा था? दिल में ख़याल करवटें बदल रहे थे और बिस्तर पर मैं ... नींद तो जैसे खुद ही कहीं जाकर सो गई हो.
अगले दिन बाज़ार गई तो फूलवाला मुस्कुराते हुए गुलाब का फूल देने ही वाला था कि ... "रहने दीजिये. मुझे नहीं चाहिए". उसे अपने कानो सुने पर विश्वास न हुआ और कहा "जी बिलकुल ताज़ा गुलाब है. इसकी महक ...". मैंने उससे अचानक टोकते हुए कहा "कहा ना, नहीं चाहिए". यह कह कर आगे चल दी. जब तक उस फूलवाले से गुलाब खरीदती रहती थी मेरी वाणी भी जैसे मृदु और स्वाभाव भी महक रहा था. मगर जिसके लिए वह गुलाब खरीद रही थी उसने ही जब साफ़ इनकार कर दिया था तो मैं क्यों अब उस फूल को उनके घर की चौखट पर रखकर उसका अपमान करूँ? दीवानगी ही थी मेरी, खुद को समझा लुंगी. ना अब उनके घर से और ना उनकी गली से गुज़रूंगी.
कुछ दस सिन बाद बाज़ार में उनकी पड़ोसन मिली. मैं जब गुलाब का फूल लेकर जाती थी तो उनकी पड़ोसन अक्सर अपने आँगन के पौधों में पानी डालते हुए मेरी तरफ देखती और मुस्कुराती.
"कैसी हो बेटी?", बड़े प्यार से उन्होंने पुछा.
"जी मैं ठीक हूँ. आप कैसी हैं?"
"बस ठीक हूँ. क्या बात है, आजकल तुम नहीं आती गुलाब लेकर?"
गुलाब के फूल के साथ लगे हुए कांटे की तरह सीधे दिल में चुभ गया उनका यह सवाल. यह तो अच्छा था कि इतने सालों से आदत थी कि आँखों को किसी के सामने नम नहीं करती थी.
"जी ... वो मैं ... जी आजकल मैं ... मैं बड़ी व्यस्त रहती हूँ".


उनका चेहरा देख कर ऐसा लगा कि उन्हें मेरी बातों पर जैसे पूरा विश्वास नहीं हो रहा था. "अच्छा. जब यह व्यस्तता पूरी हो जाए तो ज़रूर आना. वह रोज़ खिड़की से झांकता रहता है, तुम्हारा और तुम्हारे गुलदस्ते का इंतज़ार करता है".

Monday 19 September 2016

इसी बहाने से


मैं अपने केश खुले छोड़ दिया करती हूँ  कि
इसी बहाने से
मेरे चेहरे पर गिरी मेरी लटों को
तुम बड़े प्यार से हटाते रहते हो.

बाईक में तुम्हारे पीछे बैठ कर तुमसे कहती हूँ
"मुझे तेज़ रफ़्तार से डर लगता है"
इसी बहाने से
तुमसे ओर ज़्यादा चिपक कर बैठती हूँ.

जान-बुझ कर लड़खड़ाती गिरती हुई चलती हूँ कि
इसी बहाने से
तुम बार बार मुझे संभालते रहते हो.

बेवजह सिरदर्द का रोना रोती हूँ कि
इसी बहाने से
तुम अपने हाथों से मेरा माथा प्यार से सहलाते रहो.

नाचते हुए गिर जाती हूँ
पैर में मोच आने का नाटक करती हूँ कि
इसी बहाने से
तुम मुझे अपनी बाहों में उठा लो.

बारिश का गिरना बहुत पसंद है.
पर बिजली के गिरने से झूठमूठ डर जाया करती हूँ
इसी बहाने से
ज़ोर से तुम्हारे गले लग  जाया करती हूँ.

मैं इन्ही बहानों के ज़रिये
तुमसे बस इतना कहना चाहती हूँ ...

मैं तुमसे बेहद मोहब्बत करती हूँ.

Sunday 11 September 2016

सुप्रीम कोर्ट - 5

हम दोनों फिर से पापा की ऑफिस में गए. पापा एक कागज़ पर कुछ गुना-भाग कर रहे थे. उनके पास अगर केल्क्युलेटर होता तो यह काम शायद आसान होता. मैं अपनी अंग्रेज़ी की किताब हाथ में लिए पापा के पास गई और कहा "पापा, यह देखिये मैंने 'Our Environment (हमारा पर्यावरण)' पर निबंध लिखा जो मेडम को इतना पसंद कि उन्होंने मुझे ३ स्टार दिए". यह कह कर पापा के हाथों में मैंने अपनी किताब थमा दी. वे चाहे कितने भी व्यस्त होते, हम बच्चों की यह कोशिशें और प्राप्तियों को सराहते और प्रोत्साहन देते. पापा वह निबंध पढ़ने लगे. दीदी चुपके से ऑफिस में आई और कोने में पड़े छोटे मेज़ के पास गई. उस मेज़ पर पड़े दो तीन दिन पुराने अख़बार को उठा कर हलके से केल्क्युलेटर उनके नीचे सरका दिया. फिर वह पापा के पास आई और कहा "पापा मुझे स्कूल के एक प्रोजेक्ट के लिए कुछ अख़बार चाहिए. मैं ले सकती हूँ?" पापा ने हाँ में सिर हिलाया. दीदी वापिस उस मेज़ के पास गई और अख़बार को उठाया और ख़ुशी से बोली "पापा! देखिये केल्क्युलेटर मिल गया!" और पापा के पास उससे ले आई. पापा बड़े आश्चर्य से देख रहे थे. सोच रहे थे कि जब उन्होंने तीन-चार बार वहां देखा तब तो केल्क्युलेटर वहाँ नहीं था. और अब? वे हम दोनों को बड़े अजीब से देख रहे थे. शायद उन्हें यकीन नहीं हो रहा होगा कि हमने उनकी इतनी बड़ी मदद कर दी. फिर वह मुस्कुराये और कहा "थैंक यू प्रियंका बेटा, तुम दोनों सचमुच कमाल हो". दीदी और मैं बहुत खुश हुए कि दीदी का आईडिया कामयाब रहा और पापा की तारीफ़ भी सुनने मिली. तपती ज़मीन पर आखिर हमने ठंडा पानी छिड़क ही दिया. पापा हमें देख कर मंद मंद मुस्कुरा रहे थे. 
"आप खुश हैं न पापा?" दीदी ने पूछा. 
"हाँ प्रियंका, मैं खुश हूँ".
अब यह सही समय था फैसला करवाने के लिए.
"अच्छा, अब आप सुनिये इस ईशा ने क्या किया. मुझसे पूछे बिना मेरी कलर पेंसिल्स ली और बॉक्स भी तोड़ दिया."
"नहीं पापा, दीदी झूठ बोल रही है. मम्मी ने कहा था कि मैं दीदी की पेंसिल्स ले सकती हूँ. और बॉक्स छीना झपटी में टूटा. दीदी ने तो मेरी ड्रॉईंग ही खराब कर दी". फिर दीदी को देखते हुए मैंने कहा "मैं वैसे भी तेरी पेंसिल्स खा नहीं जाती". 
"देखा पापा यह कैसे आड़े-टेढ़े जवाब देती है, ज़ुबान लड़ाती है. आप इससे समझाए कि ऐसा नहीं करना चाहिए. मैं आखिर उसकी बड़ी दीदी हूँ". 
"पापा आप दीदी से कहिए कि हमेशा मुझ पर ऐसे दादागिरी न करे". 
"पापा, ईशा पूछे बिना ... "
ऑफिस हम बहनों की दलीलों के कोलाहल से गूँज रहा था.

हमारे प्यारे सुप्रीम कोर्ट हमें बड़े प्यार से देख कर अभी भी मंद-मंद मुस्कुरा रहे थे. 

Saturday 10 September 2016

सुप्रीम कोर्ट - 4

अब पापा की ऑफिस के अलावा मेरा और दीदी का कमरा बाकी रह गया था. पापा तो खैर ऑफिस में ढूंढ ही रहे थे. दीदी और में अपने कमरे में गए. बेड पर देखा, ड्रॉवर में देखा. कबर्ड में देखा. "ईशा, तूने आज अपना मेथ्स का होमवर्क कर लिया?"
दीदी का यह सवाल बड़ा महत्वपूर्ण था. मुझे शब्दों से प्यार था, उनसे खेलना अच्छा लगता था. ड्रॉइंग करना, चित्र बनाना उन्हें रंगना पसंद था. पर मेथ्स से तो मेरा छत्तीस का आंकड़ा था. दीदी और संजू समझाते रहते की मेथ्स में नियमितता थी. मगर फिर भी मुझे एक आँख न भाता. भगवन भला करे उस इंसान का जिसने केल्क्युलेटर बनाया. मुझ जैसों के लिए एक वरदान यंत्र था. केल्क्युलेटर न होता तो मेरे मेथ्स का होमवर्क आधे घंटा की जगह एक घंटा चलता. फिर मुझे न खेलना का, न पैंटिंग का और न किताबें पढ़ने का पर्याप्त समय मिलता. अपनी मनपसंद शौक पुरे करने के लिए एक एक मिनट कीमती रहता है. हाँ, अब आप समझे दीदी का यह सवाल क्यों महत्वपूर्ण था. मैंने अपनी किताबों की शेल्फ में ढूँढा. केल्क्युलेटर वहां भी नहीं था.
"ईशा, ऐसा तो नहीं की भूल से तूने केल्क्युलेटर अपनी किताबों के साथ स्कूल बेग में रख दिया हो?"
"मैं ऐसा क्यों करुँगी?"
"देख तो ले". मगर यह कहते हुए दीदी खुद मेरी स्कूल बेग चेक करने लगी. और मेथ्स की किताबों के बीच वह छुपा रुस्तम मिला! हम दोनों इतने खुश हो गए!
"चल पापा को दे आते हैं!"
"रुक ईशा, पापा से क्या कहेंगे? कहाँ से मिला केल्क्युलेटर?"
मैं बर्फ सी जम गई. पापा ने मुझे मेथ्स के होमवर्क के लिए केल्क्युलेटर का उपयोग करने से सख्त मना किया हुआ था. पता नहीं उन्हें ऐसा लगता था कि प्रारंभिक मेथ्स के लिए कैलकुलेटर नहीं पर दिमाग का उपयोग करना चाहिए. दो महीने पहले उन्होंने मुझे केल्क्युलेटर द्वारा मेथ्स का होमवर्क करते देख लिया था. उनकी डांट याद आई और मैं रोने लगी.
"दीदी! पापा मुझे बहुत डांटेंगे! दीदी ... "
"रो मत. कुछ सोचते हैं. दीदी ने हलके से मेरे सर पर एक थपकी मारी. "सोचने दे". दो महीने पहले की डांट इस कदर कानो में गूंजने लगी थी की मैं सोच नहीं रही थी, मैं रो रही थी.

"ईशा, रो मत. देख मेरे पास एक मस्त आईडिया है!" 



( ... to be continued)

Friday 9 September 2016

सुप्रीम कोर्ट -3

बम फटा! भूचाल आया! बिजली गिरी! पापा की एक दहाड़ इतना असर रखती थी. दीदी और मैं सुन्न से खड़े रह गए. "दोनों मक्खियों की तरह कब से भिन्न-भिन्ना रही हो. एक तो मुझे मेरा केल्क्युलेटर कहीं भी मिल नहीं रहा! काम अटका पड़ा है. कल सुबह तक यह डिज़ाइन दिखानी है. और तुम दोनों मेरे सिर पर नाच रही हो. जाओ यहाँ से!"
मैं और दीदी पापा को और एक दूसरे को देख रहे थे.
"अभी तक यहीं खड़ी हो? जाओ!" यह कह कर पापा मुड़ गए, केल्क्युलेटर ढूंढने लगे. दीदी और मैं सहमे हुए चुपचाप बाहर आ गए. समझ में नही आ रहा था कि पापा इतना गुस्से में क्यों हो गए. हम ने तो सिर्फ उनसे केस सुलझाने को कहा था. पापा का गुस्सा हमसे बर्दाश्त ही नहीं होता. उनका स्नेह हमें तपती धुप में घने छाँव सा महसूस होता, वहीँ उनका गुस्सा तपती हुई ज़मीन पर पैर रखने जैसा लगता. तपती ज़मीन पर ठंडा पानी डालने की ज़रुरत थी. "पापा गुस्से में हैं", मैंने अपनी आवाज़ ढूंढते हुए कहा. दीदी मेरे सामने ऐसे देख रही थी मानो अभी बोलेगी "मैं अंधी नहीं हूँ." मगर दीदी ने ऐसा कुछ कहा नहीं. दो पल के लिए हम दोनों चुप खड़ी थीं. सोच रही थीं कि क्या करें कि जिससे पापा का गुस्सा कम हो जाए.
"पापा को केल्क्युलेटर नहीं मिल रहा, अगर मिल जाए तो ..."
"चलो ढूंढते हैं."
"मगर दीदी, ऑफिस में तो पापा हैं."
"तो बाकी घर में ढूंढते हैं".
हम दोनों पापा मम्मी के कमरे में गए. पापा कई बार शेर-बाज़ार को लेकर उनके निवेश का हिसाब करते तब केल्क्युलेटर अक्सर यहाँ ले आते. मैंने बेड के नीचे देखा. दीदी ने ड्रॉवर में देखा. केल्क्युलेटर कहीं नहीं मिला.
फिर हम संजय के कमरे में गए. वह फुटबॉल प्रैक्टिस के लिए गए था. उसका कमरा हमेशा बिखरा पड़ा रहता. हम बहनों से साफ़ करवाता. बड़े भाई होने की दादागिरी. हम दो बहनें संजू से बेहतर जानती थी कि उसकी चीज़ें कहाँ पड़ी हैं. उसका कमरा साफ़ करने के लिए हमें वेतन में उसकी विडियो गेम्स खेलने मिलती. हम दोनों ढूंढने लगी पर केल्क्युलेटर यहाँ भी नहीं मिला. अब?



(... to be continued)

Thursday 8 September 2016

सुप्रीम कोर्ट - 2

पापा. मेरे प्यारे पापा. अपने सारे बच्चों को एक समान प्यार करने वाले और कभी भी पक्षपात न करने वाले मेरे पापा. हम भाई बहनों की लड़ाई जब भी होती, और बहुत होती थी, तब पापा इस तरीके से बात को सुलझा देते थे कि हम में से कोई यह नहीं कह पाता कि "पापा जब देखो तब तेरी ही तरफदारी करते हैं."  घर के सारे फैसलों पर भी उनकी मोहर लग जाती तो वह आखरी फैसला माना जाता. इन्ही न्याय-प्रिय पापा को हमने घर में सुप्रीम कोर्ट का दर्जा दे रखा था. जो बातें हाई कोर्ट से न सुलझ पाती (वे घर के कामों में व्यस्त जो रहती), वह सुप्रीम कोर्ट सुलझा देते.
पापा ने घर के एक कमरे में अपनी ऑफिस बनाई हुई थी. हम दोनों बहनें अपना केस लिए उनकी ऑफिस में गई. सबूत के तौर पर टूटा पेंसिल बॉक्स, दीदी द्वारा बिगाड़ी हुई मेरी ड्राइंग और कलर पेंसिल्स हाथ में थे.
"पापा, देखिये ईशा ने क्या किया! मुझसे पूछे बिना मेरी कलर पेंसिल्स भी ली और बॉक्स भी तोड़ दिया. चोर!"
"ना पापा, मम्मी ने कहा था कि मौसी ने हम दोनों को जो गिफ्ट्स दी है वह हम आपस में बाँट सकते हैं. बिना पूछे."
"झूठी! मम्मी ने ऐसा नहीं कहा था कि हम बिना पूछे एक दूसरे की चीज़ें ले सकते हैं."
"पापा, दीदी ने मेरी ड्राइंग खराब कर दी". मैं ज़ोर ज़बरदस्ती से अपनी आँखों में आंसू लाने की कोशिश कर रही थी. फिलहाल सिर्फ रोती हुई आवाज़ ही बना सकी.
"पापा, ईशा ने मेरा पेंसिल बॉक्स तोड़ दिया!"
"पापा मैंने जान बुझ कर नहीं तोडा. दीदी छीना-झपटी कर रही थी सो टूट गया. ड्रामा क्वीन!"
"तू झूठी! चोर!"
"पापा, पेंसिल बॉक्स गलती से टूटा मगर दीदी ने जानबूझ कर मेरी ड्राइंग ख़राब की. देखिये यह ब्लू लाइन्स कर दी." मेरी आवाज़ कुछ और ज़्यादा रोतली हो गई.
"पापा, ईशा हमेशा ऐसा करती है. उस दिन बिना पूछे मेरी रिबन ले ली".
"तेरी रिबन तो ज़मीन पर गिरी पड़ी थी. तेरी बाकी साड़ी चीज़ों कि तरह. तू कहाँ अपनी चीज़ें संभाल कर रखती है? आलसी!"
"मैं आलसी नहीं, तू चोर है!"
"तू झूठी है!"
"तू झूठी! तेरी सारी बातें झूठी!"
"तू आलसी ..."

"चुप! बिलकुल चुप! खबरदार दोनों में से किसी ने एक और शब्द भी बोला या आवाज़ निकाली तो!" सुप्रीम कोर्ट ने दहाड़ लगाई.


(... to be continued)

Wednesday 7 September 2016

सुप्रीम कोर्ट - 1

पेड़ के पत्ते हरे रखूं या लाल? पतझड़ या ... हाथों में हरे रंग की कलर पेंसिल लिए सोच रही थी कि कागज़ पर बनाये हुए मेरे उस पेड़ को कौन सा रंग दूँ ... कि दीदी आ गई.
"मुझसे पूछे बिना मेरे कलर पेंसिल को छुआ कैसे? चोर!" यह कह कर उसने मेरे हाथों से पेंसिल छीन ली.
"तुमने ही तो कहा था कि हम दोनों एक दूसरे की गिफ़्ट अदल-बदल कर सकते हैं. मेरी नैलपोलिश तुम ले सकती हो और तुम्हारे कलर पेंसिल्स मैं!"
"मगर पूछ कर लेना चाहिए न."
"तो क्या हुआ? तुम भी मेरी नैलपोलिश मुझसे बिना पूछे ले सकती हो." दरअसल यह ज़रा मुश्किल होगा दीदी के लिए. मैंने अपनी नैलपोलिश छुपा जो दी थी. "मम्मी ने कहा है जो कुछ भी हम दोनों का है हमें आपस में बांटना है. न तेरा न मेरा. और अपनी चीज़ इस्तेमाल करने के लिए क्यों पूछना?" आठ साल की बच्ची की यह वकालत क़ाबिल-ए-तारीफ़ थी पर सामने उसके उसकी बड़ी दीदी थी. जैसे सरकारी अफसर और बाबु अपने "बड़े' होने का एहसास जताते रहते हैं वैसे ही दुनिया के सारे बड़े भाई-बहन अपने बड़े होने का हक़ जताते रहते हैं. मानो कोई विशेष परीक्षा दे कर उन्हें ये उपाधि प्राप्त हुई हो. सभी भाई बहन. सिवाय मैं.
"मौसी ने यह पेंसिल्स मुझे दी थी पगली!" यह कहते हुए दीदी सारी पेंसिल्स इक्कठी करने लगी. मैं ज़रा सी रोने जैसी हो गई. मेरे पेड़ के पत्ते और घर की छत अभी भी बेरंग जो थे. मैंने उससे कलर पेंसिल्स छीनने की कोशिश की. बहनों की इस लड़ाई में पेंसिल बॉक्स को शहादत हासिल हुई. छीना-झपटी की वजह से पेंसिल बॉक्स का एक भाग मेरे हाथ में और दूसरा भाग दीदी के हाथ में था. और मासूम सी पेंसिल्स फर्श पर बिखरी पड़ी थी. ग्लानि भाव को आते अक्सर देर लगती है. गुस्सा तो बिजली सा तेज़ पहले पहुँच जाता है. मेरे 'सॉरी' सोचने से भी पहले दीदी ने गुस्से में आकर मेरे बनाये हुए चित्र पर नीले रंग की पेंसिल से लकीरें बना दी. माफ़ी मांगने का ख़याल आते आते रह गया और मुझ पर खून सवार हो गया. मैंने दीदी को धक्का मारा. वह ज़रा सी ही पीछे पड़ी मगर ऐसी आवाज़ें लगाई जैसे मैंने उससे गरम चिमटे से छुआ हो. "नौटंकी! मेरी ड्राइंग खराब कर दी!"
"चोर! मेरी पेंसिल चुराती है!"

बस! अब बात इस कदर आगे बढ़ चुकी थी की सीधे कोर्ट तक ही जानी थी. सो हम दो बहनें इन्साफ की गुहार लिए हाई कोर्ट पहुंची. किचन में जाकर देखा, हाई कोर्ट वहां नहीं थीं. याद आया, मंदिर जाने को कह रही थीं. अब? दीदी के ख़याल में यह सवाल भी आया होगा क्योंकि वह भी मेरे साथ सीधे सुप्रीम कोर्ट जा पहुँची. 


... (to be continued)

Thursday 1 September 2016

कब तक रूठे रहोगे?


कितनी बार माफ़ी मांग चुकी हूँ. मगर जब कोई फिर भी नहीं मानता, रूठा रहता है तब खयाल आता है कि रूठने की इन्तहा क्या हो सकती है? कोई इतना कैसे रूठा रह सकता है? एक मैं हूँ जो किसी से रूठती ही नहीं ... इस डर से कि कहीं कोई मनाने ही न आया तो? दरअसल यूँ हुआ है कि जब मैं किसी से नाराज़ थी और वह माफ़ी मांगने आया था तब मैंने एक न सुनी. और एक इंसान ऐसा भी था जो मुझसे रूठा था पर मैंने मनाने की कोई ख़ास कोशिश नहीं की. न माफ़ कर सकी और न माफ़ी मांग सकी ... और वे इंसान जब हमेशा छोड़ कर चले गए तब मेरे लाख चीखने चिल्लाने पर भी उन तक मेरी आवाज़ नहीं पहुंची. जीवन और मृत्यु के बीच की दीवार अभेद्य जो है. मैं दीवार पीटती रही. न माफ़ी मिली और न कह सकी कि जाओ माफ़ किया. यह खेद बड़ी पीड़ा देती है. तो हो सकता है जिन्हें मैं मना रही हूँ उन्हें अपने जीवन में ऐसा कोई अनुभव ही न हुआ हो. अच्छा है. ऐसा अनुभव किसी दुश्मन को भी न हो, फिर यह तो मेरे अज़ीज़ है. कोई बात नहीं. वे नादान है, मैं नहीं. वे रूठे रहना चाहते हैं, उनकी मर्ज़ी. उन्हें मनाने की मैं कोई कोशिश नहीं छोडूंगी. मगर आप सब से एक राज़ की बात कहूँ? एक दिन मैं भी रूठ जाऊंगी. और वादा करती हूँ जिस दिन रूठ गई किसी के मनाये नहीं मानूँगी. दीवार इजाज़त ही नहीं देगी.