Saturday 4 June 2016

यह शब्द तुम्हारे ...



कब से बैठी हूँ
पास तुम्हारे,
तुम्हे शब्दों के सिवाय
कुछ दिखता ही नहीं.
मैं भी नहीं.

कितना प्यार है तुम्हे
अपने इन शब्दों से,
शब्दों से बनती
अपनी कविता से.

मैं कँगन खनकाती हूँ,
पुराने किसी गाने की धुन
गुनगुनाती हूँ.
पर तुम तो हर पल
अपने शब्दों को ही सहलाते हो,
उन्हें ही चूमते रहते हो.
उन्हें ही गले लगाते हो.

शायद मैं ही
झूठी आस लिए बैठी हूँ
कि तुम अब मेरी तरफ देखोगे.
पर तुम तो जैसे
मेरे होने से ही अंजान हो.

अब यह आस चुभने लगी है.
मुझे तुम्हारे पास
बैठने नहीं दे रही है.
मेरा चला जाना ही अच्छा होगा.
तुम्हे तो वैसे भी कोई फर्क नहीं पड़ेगा.

उठ कर दरवाज़े तक चली,
चौखट पर पैर ही रखा
कि तुम्हारी कविता से शब्द
दौड़े चले आए
और मेरे गले लग गए!

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