Thursday 16 June 2016

तुम्हारे पीछे ...

किचन की खिड़की से नज़र आने वाले पेड़ की टहनियों पर गिलहरी कबसे भाग-दौड़ कर रही है. जितनी शान्ति से मैं उसे देख रही हूँ वह उतने ही उत्तेजना से दौड़ रही है.
आँखों का रास्ता कानों ने मोड़ दिया जब दरवाज़े के लॉक पर चाबी घूमने की आवाज़ आई. तुम बाहर वॉक पर से जाकर लौटे हो. चाबियों का गुच्छा मेज़ पर रखा और मेरे "चाय पीएंगे?" पूछने से पहले ही सिगरेट को अपने होठों के बीच दबा कर सुलगा ली ...

'मधभरे तुम्हारे होठों को यूँ छू गई,
एक सिगरेट से आज मुझे जलन हुई."

तुम शायद बाहर से ही चाय-नाश्ता करके आए होगे. मैंने हम दोनों के लिए जो दो मग तैयार रखे हैं वे वापिस रख देती हूँ. तुम्हारे होते हुए भी अकेली चाय पीने से तो अच्छा है ...
तुम बैडरूम में चले गए. ए.सी. ऑन किया और अपनी शर्ट उतार कर कुर्सी पर रख दी. अपनी किताब और कलम लिए बेड पर बैठ गए. तुम्हारे विचार जैसे हवा में उड़ रहे हों, तुम यूँही कुछ खालीपन को देख रहे हो और फिर उस विचार को अपने किताब में लिखने लगते हो. परदे बंद हैं. सूरज की रौशनी कमरे में पूरी तरह नहीं पहुँच पा रही है. में परदे खोल देती हूँ. मगर तुम्हे शायद अँधेरा ही पसंद है. झट से खड़े होकर परदे बंद कर देते हो. वापस बेड पर जाकर, तीन तकियों को एक के ऊपर एक रख कर, बगल के सहारे लेट जाते हो. मैं ठीक तुम्हारे पीछे बैठ जाती हूँ. तुम्हारी पीठ ... बहुत लुभाता है मुझे तुम्हारे बदन का हर अंग. मैं प्यार से, अपनी हथेली से तुम्हारी पीठ सहलाती हूँ ... मगर तुम "तत्" कर के, शायद गुस्से में, मेरा हाथ अपनी पीठ से हटा देते हो. मैं तो प्यार जता रही हूँ पर तुम चिढ़ जाते हो. मैं तुम्हे परेशान नहीं करना चाहती, सताना नहीं चाहती. पर अपने इस मन का क्या करूँ? यह मन तो तुम्हारी गहरी आँखें, रसभरे होंठ, हसीन चेहरे और चुस्त बदन पर मोहित तो हो ही गया है पर तुम अपने शब्दों से जो जादू दिखाते हो उसने तो मुझे ऐसे जाल में बुन लिया है कि मैं चाह कर भी इस सम्मोहन को तोड़ नहीं पा रही हूँ. तुम्हे छुए बिन नहीं रह सकती.

मन में तुम्हारे विचार आते हैं और इन भावनाओं को मैं कविता का रूप देती हूँ. तुम्हारी पीठ पर अपनी उंगलियों से अपनी कविता के शब्द लिखती हूँ. तुम फिर से हिचकिचाते हो. गुदगुदी हो रही है या चिढ़ रहे हो? आमने-सामने होते तो निश्चित जान पाती. पीठ घुमाए बैठे हो तो सिर्फ अंदाजा लगा सकती हूँ. मगर मुझे इसमें ही बहुत संतुष्टि मिल रही है ... इतने से ही बड़ा आराम मिल रहा है कि तुम यूँ मेरे आगे बैठे हो और मैं तुम्हारे पीछे बैठी हूँ. तुम्हारी पीठ पर अपनी उँगलियों से कविताएँ लिखती हूँ. डरती हूँ कि कहीं तुम पलट के देखोगे तो? क्या होगा तुम्हारी आँखों में मेरे लिए? गुस्सा? मेरा भगवान मुझसे पहले से नाराज़ है, मेरी किस्मत भी मुझसे रूठी हुई है ... ऐसे में मैं तुम्हारा गुस्सा बर्दाश्त नहीं कर पाऊँगी, मर ही जाऊँगी. और अगर कहीं तुम्हारी आँखों में प्यार हुआ तो? मैं खुद अपना सब कुछ लुटाए बैठी हूँ, जो भी अपना था वो खोये बैठी हूँ इसलिए अब कुछ भी अपनाने से डर लग रहा है. मैं तुम्हारे प्यार को कहाँ संभाल पाऊँगी. 


नहीं नहीं! तुम कभी भी पलट कर मत देखना! तुम्हारा गुस्सा, तुम्हारी नफरत मुझे मार डालेंगे और तुम्हारा प्यार मुझे जीने नहीं देगा. मुझे इसमें ही बहुत संतुष्टि मिल रही है ... इतने से ही बड़ा आराम मिल रहा है कि तुम यूँ मेरे आगे बैठे हो और मैं तुम्हारे पीछे बैठी हूँ ... तुम यूँ ही कागज़ पर कहानियाँ लिखते रहो और मैं यूँ ही तुम पर कविताएँ लिखती रहूँ.

7 comments:

  1. वाह! वाह! मोहतरमा आप मस्त लेखिका हैं आपके शब्दों में दम है शीतलजी....... इसलिए.....

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  2. वाह! वाह! मोहतरमा आप मस्त लेखिका हैं आपके शब्दों में दम है शीतलजी....... इसलिए.....

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