Sunday 19 June 2016

एक वृक्ष

जीवन की धरा पर एक वृक्ष
महान, विशाल और घनिष्ठ.
उसकी शाखाओं पर रस्सी डाल कर
मैं झूला झूली,
लुक्का-छुपी खेलते
जब हम भाई-बहन सब
अक्सर उस वृक्ष के पीछे
मैं छिप जाती.

तेज़ धुप और झुलसती गर्मी में
वह वृक्ष शीतल छाँव देता.
अपनी विशाल छाया से जैसे
मेरे सर पर अपना हाथ रखता.

बारिश में उस वृक्ष का आश्रय लेती,
वह मुझे भीगने नहीं देता.
मुझ पर बूँदें गिरे
उससे पहले वह खुद
उन्हें झेल लेता.

ठिठुरती कंपकंपाती ठंड में
वह अपनी सूखी टहनियाँ देता ...
"इससे आग जला लो"
वह मेरा कितना खयाल रखता.

मैं जब कभी निराश हो जाती,
हार जाती ...
उस वृक्ष के तने का आधार लिए
मैं बैठ जाती.
वह मुझे कितना सहारा देता.

चलते चलते जब थक जाती
उस वृक्ष की शरण में
मैं सोने चली जाती ...
वह अपनी नरम पत्तियां झाड़ देता
मेरे लिए जैसे एक बिछौना बना देता.
वह मुझे बड़ा आराम देता.

एक दिन आया
वह वृक्ष नहीं रहा.
दोस्तों, मेरे पिता जैसा वृक्ष

इस जग में कोई और न होगा.

Thursday 16 June 2016

तुम्हारे पीछे ...

किचन की खिड़की से नज़र आने वाले पेड़ की टहनियों पर गिलहरी कबसे भाग-दौड़ कर रही है. जितनी शान्ति से मैं उसे देख रही हूँ वह उतने ही उत्तेजना से दौड़ रही है.
आँखों का रास्ता कानों ने मोड़ दिया जब दरवाज़े के लॉक पर चाबी घूमने की आवाज़ आई. तुम बाहर वॉक पर से जाकर लौटे हो. चाबियों का गुच्छा मेज़ पर रखा और मेरे "चाय पीएंगे?" पूछने से पहले ही सिगरेट को अपने होठों के बीच दबा कर सुलगा ली ...

'मधभरे तुम्हारे होठों को यूँ छू गई,
एक सिगरेट से आज मुझे जलन हुई."

तुम शायद बाहर से ही चाय-नाश्ता करके आए होगे. मैंने हम दोनों के लिए जो दो मग तैयार रखे हैं वे वापिस रख देती हूँ. तुम्हारे होते हुए भी अकेली चाय पीने से तो अच्छा है ...
तुम बैडरूम में चले गए. ए.सी. ऑन किया और अपनी शर्ट उतार कर कुर्सी पर रख दी. अपनी किताब और कलम लिए बेड पर बैठ गए. तुम्हारे विचार जैसे हवा में उड़ रहे हों, तुम यूँही कुछ खालीपन को देख रहे हो और फिर उस विचार को अपने किताब में लिखने लगते हो. परदे बंद हैं. सूरज की रौशनी कमरे में पूरी तरह नहीं पहुँच पा रही है. में परदे खोल देती हूँ. मगर तुम्हे शायद अँधेरा ही पसंद है. झट से खड़े होकर परदे बंद कर देते हो. वापस बेड पर जाकर, तीन तकियों को एक के ऊपर एक रख कर, बगल के सहारे लेट जाते हो. मैं ठीक तुम्हारे पीछे बैठ जाती हूँ. तुम्हारी पीठ ... बहुत लुभाता है मुझे तुम्हारे बदन का हर अंग. मैं प्यार से, अपनी हथेली से तुम्हारी पीठ सहलाती हूँ ... मगर तुम "तत्" कर के, शायद गुस्से में, मेरा हाथ अपनी पीठ से हटा देते हो. मैं तो प्यार जता रही हूँ पर तुम चिढ़ जाते हो. मैं तुम्हे परेशान नहीं करना चाहती, सताना नहीं चाहती. पर अपने इस मन का क्या करूँ? यह मन तो तुम्हारी गहरी आँखें, रसभरे होंठ, हसीन चेहरे और चुस्त बदन पर मोहित तो हो ही गया है पर तुम अपने शब्दों से जो जादू दिखाते हो उसने तो मुझे ऐसे जाल में बुन लिया है कि मैं चाह कर भी इस सम्मोहन को तोड़ नहीं पा रही हूँ. तुम्हे छुए बिन नहीं रह सकती.

मन में तुम्हारे विचार आते हैं और इन भावनाओं को मैं कविता का रूप देती हूँ. तुम्हारी पीठ पर अपनी उंगलियों से अपनी कविता के शब्द लिखती हूँ. तुम फिर से हिचकिचाते हो. गुदगुदी हो रही है या चिढ़ रहे हो? आमने-सामने होते तो निश्चित जान पाती. पीठ घुमाए बैठे हो तो सिर्फ अंदाजा लगा सकती हूँ. मगर मुझे इसमें ही बहुत संतुष्टि मिल रही है ... इतने से ही बड़ा आराम मिल रहा है कि तुम यूँ मेरे आगे बैठे हो और मैं तुम्हारे पीछे बैठी हूँ. तुम्हारी पीठ पर अपनी उँगलियों से कविताएँ लिखती हूँ. डरती हूँ कि कहीं तुम पलट के देखोगे तो? क्या होगा तुम्हारी आँखों में मेरे लिए? गुस्सा? मेरा भगवान मुझसे पहले से नाराज़ है, मेरी किस्मत भी मुझसे रूठी हुई है ... ऐसे में मैं तुम्हारा गुस्सा बर्दाश्त नहीं कर पाऊँगी, मर ही जाऊँगी. और अगर कहीं तुम्हारी आँखों में प्यार हुआ तो? मैं खुद अपना सब कुछ लुटाए बैठी हूँ, जो भी अपना था वो खोये बैठी हूँ इसलिए अब कुछ भी अपनाने से डर लग रहा है. मैं तुम्हारे प्यार को कहाँ संभाल पाऊँगी. 


नहीं नहीं! तुम कभी भी पलट कर मत देखना! तुम्हारा गुस्सा, तुम्हारी नफरत मुझे मार डालेंगे और तुम्हारा प्यार मुझे जीने नहीं देगा. मुझे इसमें ही बहुत संतुष्टि मिल रही है ... इतने से ही बड़ा आराम मिल रहा है कि तुम यूँ मेरे आगे बैठे हो और मैं तुम्हारे पीछे बैठी हूँ ... तुम यूँ ही कागज़ पर कहानियाँ लिखते रहो और मैं यूँ ही तुम पर कविताएँ लिखती रहूँ.

Thursday 9 June 2016

क्या कहूं?


"अब हम अलग हो जाते हैं,
मैं आज के बाद तुमसे नहीं मिलना चाहता".
इतना कह कर दामन छोड़ दिया तुमने.
आज मुद्दत बाद इस मेहफ़िल में नज़र आये हो.
यह मेरे पैरों तले ज़मीन कहाँ चली गई?
मैं काँच के टुकड़ों पर हूँ खड़ी.

कुछ भी तो नहीं बदला तुम में
- हर बात, हर अंदाज़ वही है.
होठों पर ज़र्द सा दाग,
गाल पर बड़ा सा काला तिल,
बातें करते वक़्त हाथों से इशारे करते रहना ...
कुछ भी तो नहीं बदला तुम में
- हर बात, हर अंदाज़ वही है.
यह मेरी आँखों में तिनको जैसा क्या चुभने लगा है?

और फिर तुम्हारी नज़र मुझ पर पड़ी.
बात करूँ या न करूँ?’
- उलझन तुम्हारे चेहरे पर झलक रही है.
पास आकर पूछ तो लिया
"कैसी हो?"
अरे पगले! इतना भी नहीं जानते?

मुर्दे बोल नहीं पाते.

Saturday 4 June 2016

यह शब्द तुम्हारे ...



कब से बैठी हूँ
पास तुम्हारे,
तुम्हे शब्दों के सिवाय
कुछ दिखता ही नहीं.
मैं भी नहीं.

कितना प्यार है तुम्हे
अपने इन शब्दों से,
शब्दों से बनती
अपनी कविता से.

मैं कँगन खनकाती हूँ,
पुराने किसी गाने की धुन
गुनगुनाती हूँ.
पर तुम तो हर पल
अपने शब्दों को ही सहलाते हो,
उन्हें ही चूमते रहते हो.
उन्हें ही गले लगाते हो.

शायद मैं ही
झूठी आस लिए बैठी हूँ
कि तुम अब मेरी तरफ देखोगे.
पर तुम तो जैसे
मेरे होने से ही अंजान हो.

अब यह आस चुभने लगी है.
मुझे तुम्हारे पास
बैठने नहीं दे रही है.
मेरा चला जाना ही अच्छा होगा.
तुम्हे तो वैसे भी कोई फर्क नहीं पड़ेगा.

उठ कर दरवाज़े तक चली,
चौखट पर पैर ही रखा
कि तुम्हारी कविता से शब्द
दौड़े चले आए
और मेरे गले लग गए!

Wednesday 1 June 2016

यह शब्द मेरे बड़े शरारती हो गए हैं


आज-कल यह शब्द मेरे बड़े शरारती हो गए हैं.
न वक़्त देखते हैं
न अवसर देखते हैं,
हर पल हर जगह
बस उनकी ही बातों के लिए चले आते हैं.
यह शब्द मेरे बड़े शरारती हो गए हैं.

कितना डराती हूँ
कितना धमकाती हूँ.
"दुनिया क्या कहेगी? लोग क्या सोचेंगे?"
बार-बार यह बात समझाती हूँ.
पर शब्द उनकी ही बातों के लिए चले आते हैं.
यह शब्द मेरे बड़े शरारती हो गए हैं.

कौशल्या के राम होते तो वनवास भेज देती,
जशोदा के कान्हा होते तो इन्हें किसी पेड़ से बाँध देती.
मगर यह शब्द तो अंजनी-पुत्र जैसे हैं -
यहाँ से वहाँ
इधर से उधर भागते रहते हैं.
और उनकी ही बातों के लिए चले आते हैं.
यह शब्द मेरे बड़े शरारती हो गए हैं.

सोचा इन शब्दों को सबक सिखाऊँ.
मुंह से कुछ न बोलूं
उन्हें बाहर ही निकलने न दूँ.
कलम की स्याही में क़ैद कर दूँ
मैं कुछ भी न लिखूं.
क्योंकि
यह शब्द मेरे बड़े शरारती हो गए हैं

मगर फिर मेरे यह शब्द रोने लगे.
घुट-घुट के जैसे मरने लगे.
मुझे उन पर तरस आया
और उनसे पुछा -
'क्यों हर पल उनकी ही बातों के लिए चले आते हो?
क्यों मेरा कहना नहीं मानते हो?'

शब्दों ने भी क्या खूब जवाब दिया -
'जब देखो तब हमें डांटती रहती हो.
उनके ख्यालों में जो खोया रहता है
अपने उस मन से तो कुछ नहीं कहती हो.'
उफ़!

आज-कल यह शब्द मेरे बड़े शरारती हो गए हैं ...