Tuesday 29 March 2016

एक बच्चा - 4

स्वप्न! महत्त्वकांक्षा! मानो जैसे मन में एक बच्चा पैदा हुआ हो। मन जैसे एक माँ हो। कभी कभी यह बच्चा बड़ा होकर सफल होता है और अपनी माँ को परमानंद देता है। कभी कभी बहुत सारे बच्चे यूँही आधे-अधूरे खो जाते हैं। आखिर एक माँ कितने बच्चे संभालेगी? और कभी कभी तो इन बच्चों को मार डालना पड़ता है। इससे बड़ा दुःख एक माँ के लिए और क्या हो सकता है? फिर सालों तक वह इस बच्चे का निर्जीव शव लिए घूमती फिरती है - और इसकी मृत्यु के साथ ही उस बच्चे को भी मुक्ति मिल जाती है। तो कभी यूँ भी तो होता है की वह बच्चा किसी और को गोद दे दिया जाता है कि - मैं तो नहीं पाल सकुंगी इससे, तुम ही इससे बड़ा कर देना।
खैर, तीन साल हो आये थे। मैं अब पैरों की थपाट यूँ बजाती - वैशाली दीदी ने कहा था कि पहले पैरों और ज़मीन के बीच का संवाद शुरू करो। बाद में घुँघरू भी जुड़ जायेंगे। नृत्य करके जो पसीना बेहता वो पूरे शारीर को महका देता। मैं अपने बच्चे की साथ  एक अलग दुनिया में ही जी रही थी और बहुत खुश थी। तीसरे साल की भरतनाट्यम परीक्षा की तैयारी चल रही थी। मगर एक शाम मेरे बच्चे के लिए बहुत बुरी खबर आई।
पापा घर पर उनके दोस्तों के साथ वाद-विवाद में व्यस्त थे। मम्मी के माथे पर चिंता की रेखाएं थी जो मुझे बिलकुल अच्छी नहीं लगती थी। पापा का ट्रांसफर होने वाला था - एक नए शहर में। १५ दिन का समय ही था हमारे पास। मेरा नृत्य! मेरी साधना! मेरा बच्चा! नैना अपने दोस्तों को लेकर रो रही थी। तब चिट्ठी और फ़ोन के अलावा संपर्क बनाए रखने का ओर कोई ज़रिया भी तो नहीं था। और मेरे दोस्त? मेरे बच्चे ने मुझे इतना व्यस्त रखा था कि मुझे दोस्तों की कभी ज़रूरत ही नहीं पड़ी। हाँ वैशाली दीदी की नृत्यशाला में लड़कियों से दो-चार बातें हो जाती वरना सारा समय ता-थई-थई-तत में चला जाता। मैं भाग कर वैशाली दीदी के पास गयी और सूखी आँखों व रुदाली स्वर में उनसे कहा  - "मैं जा रही हूँ।"
दीदी - "कहाँ?"
मैं - "पापा का ट्रांसफर हो गया है। फिर से। हम सब १५ दिन में यह शहर छोड़ कर जा रहे हैं। दीदी ... मेरा नृत्य ... दीदी ... मैं ..."
वे चुप थीं। यह बात किसी से नहीं छुपी थी कि मैं उनकी प्रिय थी। उनकी कही एक बात तो मानो मेरे मन की दीवार पर कुरेद गयी हो - "तुम जैसी नर्तकी गुरु का मान बढाती है। तुम तो जैसे नेचुरल डांसर हो।" यह बात मेरे लिए एक जुगनू समान थी। मन में जब कभी अँधेरा छा जाता तो यह जुगनू अपनी रौशनी से मेरे मन को भी रोशन कर देता। पर आज वे चुप थीं।
कुछ देर बाद उन्होंने पुछा - "कहाँ जा रहे हो?"
मैं - "गुजरात के किसी शहर में।"
दीदी - "तो तुम अपना नृत्य वहां सिख लेना।"
मैं - "पर आप तो नहीं होंगी वहां। फिर कैसे ।।। ?"
दीदी - "मैं नहीं तो कोई और होगी। नृत्य तुम्हारी साधना है और मैं तो केवल माध्यम हूँ। कोई और माध्यम ढूंढ़ लेना। मतलब कोई और गुरु ढूंढ़ लेना।"

उस दिन मेरे हाथों के साथ मेरे अश्रुओं ने भी दीदी के पैर छूए।

... (to be continued)

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