Tuesday 5 September 2017

पितृ गुरु भवः

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बचपन से लेकर जवानी तक और जवानी से लेकर बुढ़ापे तक हम निरंतर कुछ न कुछ सीखते रहते हैं. कुछ याद रखते हैं, कुछ पर अमल करते हैं, कुछ भूल जाते हैं. अपने बचपन में सीखी हुई एक बात आज जैसे मेरे जीवन का एक सत्याचरण बन गई है.
मैं आठ साल की थी. एक बड़ी बहन और एक बड़े भाई के बाद अपने माँ-बाप की तीसरी प्यारी संतान. जिनके बड़े बहन-भाई होते हैं उनकी एक अलग ही दादागिरी होती है. बात बात पर दोस्तों को डराना "भाई को बोल दूंगी न वो तुम्हे देख लेगा" या "बोल दूँ जाकर दीदी से?"
और बस कुछ इस वजह से बात बात पर रोने की आदत भी पड़ गई. कुछ भी परेशानी या बात होती तो रोने लगती और इसका जादू यह होता कि मम्मी, पापा, दीदी या भाई सब ठीक कर देते. बचपन में एक उपनाम मिल गया था मुझे. रोतलु. मगर मुझे इससे कोई फर्क नहीं पड़ता. बस मैं इतना समझ गई थी कि रोने से मेरा काम कहीं अटकता नहीं. मगर फिर एक दिन ...
मैं और मेरे अड़ोस-पड़ोस में रहने वाली मेरी सहेलियां सब स्कुल बस से नीचे उतर कर बस-स्टॉप पर खड़ी थी. मेरी एक सहेली के हाथों में एक चार्ट पेपर था. उसके जूते की डोरी खुल गई थी और उसने मुझे चार्ट पेपर थमाते हुए कहा "इसको ज़रा पकड़ो, मैं डोरी बांध लूँ". मैंने चार्ट पेपर तो पकड़ा मगर अब इसे मेरी बदकिस्मती कहिये या चार्ट पेपर की या मेरी सहेली की ... मेरे करीब से एक लड़की तेज़ी से चली और उसकी झपेट में चार्ट पेपर आया, फट गया. मेरी सहेली ने डोरी बाँध कर ऊपर मेरी तरफ और मेरे हाथों में उसका फटा चार्ट पेपर देख वह गुस्से में हो गई. "आज डाइग्राम बना कर कल टीचर को देना था. यह तुमने क्या किया?" मैंने सफाई देते हुए कहा "ज़बरदस्ती थोड़ी किया? और मुझसे थोड़ी फटा? फिर भी सॉरी". मगर मेरी सहेली ने अचानक से मुझे चाँटा मारा. मुझे एक दम से रोना आ गया. चांटे पर. सहेली ने मारा उस पर. और सबसे ज़्यादा इस बात पर कि मेरे दीदी या भाई भी मेरे साथ नहीं थे तब.
मैं रोती हुई घर गई और घर जैसे जैसे करीब आने लगा मेरे रुदन की आवाज़ बढ़ने लगी. घर पहुँचते ही स्कुल-बेग को रखते हुए पापा के पास गई और सुबक सुबक कर कहने लगी "पापा! मुझे वैशाली ने मारा!"
पापा किसी से फोन पर कुछ परेशानी से बात कर रहे थे मगर मुझे तो फिलहाल मेरी परेशानी ही नज़र आ रही थी. अपनी आवाज़ और रुदन की तीव्रता बढ़ाते हुए मैंने कहा "पापा! वैशाली ने बहुत ज़ोर से चाँटा मारा! मेरी तो कोई गलती भी नहीं थी". मगर फिर भी पापा का ध्यान उस अदृश्य व्यक्ति पर था जिनसे वे फोन पर बात कर रहे थे. यूँ अनदेखा-अनसुना हो जाने का दर्द अब चाँटे के दर्द से बढ़ने लगा. पापा ने फोन रखा और मैंने फिर से उच्चतर स्वर में कहा "पापा! मुझे वैशाली ने मारा!" पापा ने मेरी तरफ देख कर कहा "कहाँ मारा?" मैंने बायां गाल दिखाते हुए कहा "यहाँ". पापा ने बिन कुछ कहे मुझे दाहिने गाल पर चाँटा मारा. स्तब्ध. बिलकुल स्तब्ध हो गई मैं. रोना अचानक से बंद हो गया मेरा. और पापा ने कहा "वैशाली के पास दो हाथ हैं, उसने तुझे मारा. भगवान ने तुझे दो हाथ नहीं दिए हैं क्या? मेरी बेटी है तो जाकर उसे कस के तमाचा मार के आ वरना यहाँ आकर रोने की ज़रूरत नहीं".
अचानक मम्मी किचन से आई मुझे अपने साथ ले गई. कपडे बदल कर खाना खाते हुए मम्मी ने बड़े प्यार से समझाया "पापा की कोई पेमेंट रुकी हुई है. फिलहाल परेशां हैं. और फोन पर बात कर रहे थे न. तुम्हे समझाया है कि जब कोई फोन पर बात कर रहा होता है तब बीच में नहीं बोलते. चल मेरी अच्छी बच्ची". और माँ ने मेरे गाल चूम लिए. मरहम! ऐसा मरहम आजतक इस दुनिया में बना ही नहीं. मगर न जाने क्यों पापा की बात दिल में बैठ गई.
दूसरे दिन जब स्कुल-बस के लिए बस-स्टॉप पर खड़े थे तब वैशाली ने अपना चार्ट पेपर दिखाते हुए कहा "देख, तेरी बेवकूफी के बावजूद मैंने डाइग्राम पूरा किया". और मेरे दिमाग में पापा के शब्द चरखी की तरह घूमने लगे. घूमते घूमते वो शब्द मेरे हाथ तक पहुंचे और मैंने कस के वैशाली को चाँटा मारा. वो चौंक गई और उसकी आँखों में आँसू आ गए. "मैंने कहा था न कल कि जान-बुझ कर नहीं किया. माफ़ी भी मांगी थी न? अब बात ख़तम करो".
स्कुल-बस आ गई और हम सब अंदर चढ़ गए. आज पता नहीं क्यों ... हाथों में जैसे पर आ गए हो. बहुत खुश थी. और बस आठ साल की उम्र में मिली वो सीख आज तक नहीं भूली. जब तक आप खुद के लिए नहीं लड़ सकते, लोग आपको सताते और दबाते रहेंगे. इससे भी महत्वपूर्ण - जितना आप खुद के लिए लड़ सकते हैं उतना कोई ओर व्यक्ति आपके लिए नहीं लड़ सकता. एक व्यक्ति ढाल भी बन सकता है और तलवार भी. जो खुद के लिए लड़ सकता है वो ओरों के लिए भी लड़ सकता है, उनकी रक्षा कर सकता है. अपने जीवन के इस अमूल्य बोध-पाठ के लिए मैं अपने गुरु सामान पापा की सदा आभारी रहूँगी.
वापस घर पहुँच कर मैं मुस्कुराते हुए पापा के पास गई और उनका मिज़ाज देखा. वे शांति से कुछ पढ़ रहे थे. मैंने बड़े मीठे स्वर में कहा "पापा, पता है आज न मैंने उस वैशाली को कस के तमाचा मारा!" और यह कहते हुए मानो जैसे मैं कोई दौड़ में अव्वल आई हूँ वैसे ख़ुशी मेहसूस हुई.

अलबत्ता मैंने अपने जीवन में ऐसा भाव सबसे पहली बार अपने पापा के चेहरे पर देखा - हँसे या डाँटे?

1 comment:

  1. बहुत सुंदर.. बचपन मे मिले सबक ताउम्र साथ देते हैं

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