Sunday 9 April 2017

बेहतर




मैंने टिकिट संभाल कर अपने पर्स के उस हिस्से में रखी जहाँ मैं पैसे रखती थी. मेरे पर्स में तो जैसे एक छोटी अलग ही दुनिया थी ... अनगिनित चीज़ों से भरी पड़ी और जिनका मुझे यकीन था कि कभी न कभी मुझे काम आएगी.
सब कुछ पेक कर लिया था. दोस्तों और रिश्तेदारों को भी बिना बताये जा रही थी. मुझे विदाई पसंद नहीं थी. रोना-धोना, "हमें छोड़ के मत जाओ" ... यह सारी बातें बेशक दिल से कही जाती मगर मेरे कदम जो आगे बढ़ना चाहते थे उनको यह सब बातें एक ज़ंजीर सी लगती. "मोह का धागा - न टूटता है, न छूटता है". सिर्फ उससे बताया था मैंने. पर अब लग रहा था कि यह भूल हुई थी मुझसे.
जैसे मेरे दिल में लिए गए उसके नाम को उसके कान सुन लेते ... वह आ गया.
"ज़िद्द नहीं छोड़ोगी न?"
"देखो! मुझे समझने की कोशिश करो. अब इस शहर में मेरा दम घुट रहा है".
"पांच सालों से तो तुम्हे कोई शिकायत नहीं थी इस शहर से".
"हाँ. पांच सालों से कोई शिकायत नहीं थी मगर अब मुझे यह शहर वह नहीं दे पा रहा जो बतौर एक लेखिका मुझे चाहिए. मैं अपने आपको बेहतर बनाना चाहती हूँ, बेहतर लिखना चाहती हूँ".
"अलका, मुझे तुम्हारी बातें ..."
"नहीं समझ आ रही न? मुझे अब इस शहर की गलियां, यहाँ के नज़ारे पुराने लगते हैं. मुझे इनमे से कोई कहानी अब नहीं मिलती क्योंकि मैं इस शहर पर कई कहानियां लिख चुकी हूँ. जितना रस इसमें से निकाल सकती थी, प्रेरणा का वह रस निकाल चुकी हूँ. वही दुकाने, वही बाग़, वही गली, वही चौराहे, वही लोग ..."
"लोग? उन लोगों में से मैं भी तो एक हूँ न अलका? तुम्हारे दोस्त भी है, रिश्तेदार भी है".
"हाँ और उन लोगों में जैसे एक ठहराव सा आ गया है. कहीं न कहीं उन सब को अपनी कहानियों का पात्र बना चुकी हूँ. समझने की कोशिश करो, मैं कुछ बेहतर करना चाहती हूँ".
वह मेरे पास आया. उसकी आँखों में सवालों की नमी थी. "मत जाओ अलका. प्लीज़ मत जाओ!"
"मुझे अब यूँ मत रोको. मैं एक नदी की तरह बहना चाहती हूँ, नदी कब कहीं किसी एक तट पर रुक जाती है? मैं तालाब बनकर नहीं रह सकती. जैसे नदी का पानी साफ़ होता है वैसे मेरी कल्पना अलग अलग शहरों से गुज़रते हुए साफ़ बहती है. जिस दिन मेरी कल्पना कहीं रुक गई वह एक तालाब बन जाएगी और ..."
"मत जाओ अलका, प्लीज़!", यह कह कर उसने मुझे अपनी बाहों में ले लिया. जहां से उसकी बाहों के दायरे शुरू होते वहीँ से मेरी सोच की हद ख़तम होती. न मैं कुछ ओर देख पाती, न सुन पाती. केसर जैसे दूध में घुल जाये, मैं उसके प्रेम में घुल जाती. रात तो हसीन थी ही, हमने रात को महका भी दिया.
सुबह ५ बजे जब अलार्म बजा मैंने जल्दी से बंद कर दिया. अगर वह जाग गया तो फिर से मुझे रोकने की कोशिश करेगा. उसका हाथ अपने पेट पर से धीरे से हटाया और नहाने चली गई. चुपचाप तैयार हो कर, अपनी बैग और पर्स लेकर स्टेशन के लिए निकली. जाने से पहले उसे जी भर कर देखा ... उसके घुंघराले बाल, उसकी तेज़ आँखों पर घनी भौरें, उसकी गर्दन पर तिल, उसके होंठ जिन्होंने मेरे बदन के हर अंग को बेहद प्यार से छुआ था.
स्टेशन पहुँच कर मैंने अपने पर्स से टिकिट निकाली तो देखा साथ में एक चिट्ठी भी थी.
"मैं जानता हूँ तुम मेरी गहरी नींद की आदत का फ़ायदा उठा कर चुपचाप चली जाओगी. मेरे लाख मना करने के बावजूद. हाँ मैं तुम्हारी यह बातें नहीं समझ पा रहा कि तुम अपने आप को बेहतर बनाना चाहती हो ... क्योंकि मेरे लिए तो तुम अच्छी या बेहतर नहीं, बेहतरीन हो".

मेरे एक हाथ में ट्रेन की टिकिट थी - कीमत रु. १५० और आशा. दूसरे हाथ में उसकी चिट्ठी थी - कीमत अनमोल और प्रेम.

1 comment:

  1. To be frank , you express your emotions better in your mother language .

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