Thursday, 31 March 2016

मेरे लिए

तुम हथेलियों पर दीया क्यों नहीं जलाते
मेरी राहों को रोशन करने के लिए?

आसमान से तारे क्यों नहीं तोड़ लाते
मेरे आँचल में जड़ने के लिए?

हिमालय जाकर ब्रह्मकमल क्यों नहीं ले आते
मेरे केशुओं में सजाने के लिए?

गहरे समुन्दर में से मोती क्यों नहीं ले आते
मेरी मांग में भरने के लिए?

मिस्र जा कर अत्तर क्यों नहीं ले आते
मेरे बदन को महकाने के लिए?

अच्छा रहने दो ये बातें.
बस इतना ही बता दो - 

अपने हसीन चेहरे पर मुस्कान क्यों नहीं ले आते
मेरे इस दीवाने दिल की ख़ुशी के लिए?

एक बच्चा - 6

अगले दिन मानो जैसे मेरे और राघव के बीच कोई बात ही न हुई हो, वे नाश्ता करके, तैयार होके ऑफिस चल दिए। कोमल भी स्कूल गयी और जब दोपहर को वापस आई तो मुझे अपनी प्यारी सी आवाज़ में कहा "मम्मी, याद है न पापा ने कहा कि हम मंगल आर्ट्स सेंटर जायेंगे?" मैंने उसका माथा चूमते हुए कहा "हाँ गुड़िया, हम ज़रूर जायेंगे। पहले खाना खा लो, कुछ देर सो जाओ, फिर उठ कर होमवर्क कर लो। फिर हम ६ बजे जायेंगे।" और मेरी गुड़िया ख़ुशी ख़ुशी मेरा केहना मान गई।
शाम को जब हम माँ बेटी आर्ट्स सेंटर गए तो वहां कोमल की पेंटिंग टीचर से मुलाकात हुई। उसका रंगों के प्रति खिंचाव देख कर टीचर बहुत खुश हुई और उससे अपनी क्लास में ले गई। एक घंटे की क्लास थी और कोमल के साथ दूसरे छोटे बच्चे भी वहां थे। मैंने उससे इशारा किया कि मैं यहीं बाहर बैठी हूँ। रिसेप्शन में जाकर कोमल के लिए फॉर्म भरा और एक ओर फॉर्म माँगा - भरतनाट्यम के लिए। रिसेप्शन पर खड़ी लड़की ने कहा "मधु जी सिखाती हैं नृत्य, उनकी क्लास पहले माले पर है। एक बार उनसे बात कर लीजिए।"
मैं मधु जी की क्लास में गई। मधु जी अपनी स्टूडेंट्स से अभ्यास करवा रही थी। मैं उनके पास गयी ओर कहा "हेलो! मैं नृत्य सीखना चाहती हूँ।" आँखों में प्यार भरा आश्चर्य, होंठों पर सहज सी मुस्कान लिए उन्होंने पुछा  "आप सीखना चाहेंगी?"
"जी हाँ, मैं १३ साल की थी जब मेरा नृत्य छूट गया। मैंने ३ साल भरतनाट्यम सीखा है। अब बाकी जो छूट गया वह सीखना चाहती हूँ।"
मधु जी खड़ी हो गईं और कहा "मैं खुश हूँ जो आप इस विचार से आई हैं। अक्सर इससे बचपन का शौख समझ कर अधूरा छोड़ दिया जाता है। आप कल से जॉइन कर सकती हैं। नीचे जाकर फॉर्म भर लें।"
मुझे फिर से गुरु मिल गए। उनके पैर छुए और ज़मीन से अपनी झकद तोड़ती चली गयी। मैं फिर से उड़ रही थी। राघव क्या सोचेंगे? यह मैं क्यों सोचूं? मेरा बच्चा, मेरी महत्वकांक्षा, मेरा स्वप्न, मेरा जीवन और अनुमति किसी और की? मेरे बच्चे को पूरा हक़ है कि वह दूसरों के बच्चों की तरह बड़ा हो।
नीचे रिसेप्शनिस्ट को फॉर्म दिया और उसने अपने रजिस्टर में लिखने के लिए नाम पुछा "आपकी बच्ची का नाम?"
"कोमल सहनी"
"और आपका नाम?"
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Wednesday, 30 March 2016

एक बच्चा - 5

दस दिन बाद हम जुनागढ़ चले गए। एक अलग जगह, एक अलग माहौल और एक अलग दुःख - वहाँ पर भरतनाट्यम सिखाने वाला कोई नहीं था। ऐसा लगा जैसे मैं अपने बच्चे को सिर्फ 3 साल का आयुष्य ही दे पाई। 5 साल बाद फिर से पापा का ट्रांसफर हुआ और हम फिर से अलग शहर में रहने गए। पढ़ाई पूरी करके जैसे जीवन का एक पड़ाव पूरा हुआ हो और दूसरा पड़ाव आ पहुंचा था। काश मैं यह कह सकती कि मैंने कोई नौकरी शुरू की पर नहीं। मेरे जीवन का अगला पड़ाव था विवाह। मुंबई से मेरी मामी अपने किसी रिश्तेदार के बेटे का रिश्ता ले आईं। राघव से, उसके परिवार से मेरा यह जीवन जुड़ गया।
जीवन कभी-कभी एक कपड़े जैसा लगता है जिससे कई रंगों के धागों से बुना गया हो। बचपन का रंग, स्नेह का रंग, दोस्ती का रंग, ज्ञान का रंग, दांपत्य का रंग, वात्सल्य का रंग  ... कभी किसी के लिए कोई रंग फ़ीका तो कोई रंग उजला। और यूँही समय चलते मेरे जीवन में गुलाबी रंग के वात्सल्य का धागा भी बुन गया। गुलाबी कैसा? बिलकुल कोमल के गालों जैसा। इतनी प्यारी गुड़िया सी मेरी बेटी। उसके गुलाबी रंग को देख कर मैंने और राघव ने उसका नाम 'कोमल' ही रखा। गुलाब के फूल की तरह ही कोमल ने हमारे जीवन को महका दिया। वह जब हंसती तो उसके गाल गुलाबी और जब रोती तो नाक गुलाबी हो जाती। हमारी प्यारी बेटी कोमल।
वह बड़ी होती गयी और जब वह 4 साल की हुई एक अच्छे से स्कूल में उसकी पढ़ाई आरंभ की । वह पढ़ने में अच्छी तो थी ही, साथ खेल कूद में भी अच्छी खासी दिलचस्पी रखती थी। एक दिन कोमल अपने स्कूल से एक पत्रिका ले आई जिसमे लिखा था पढ़ाई के अलावा किसी कला या अभिरुचि के अनुसार यदि कुछ सीखने की इच्छा हो तो 'मंगल हॉबी एंड आर्ट्स सेंटर' से संपर्क किया जा सकता था। उनकी लिस्ट में मिट्टीकाम, सिलाईकाम, ओरिगेमी, चित्रकला, संगीत और नृत्य भी था। नृत्य! कई सालों पहले जो खो गया था वह बच्चा आज फिर से मेरी आँखों के सामने आ गया और मुझसे कहा "मुझे बड़ा होना है। मैं कब तक छोटा रहूँ?"
मैं उससे कुछ कह नहीं पाई। शाम को जब राघव घर आये तो कोमल ने पत्रिका उनको दिखते हुए बोली - "पापा, मुझे पैंटिंग सीखनी है। मैं सीखूं?"
मासूमियत और साफ़-दिल से पुछा गया वह सवाल, वह निवेदन -  राघव कैसे न मानते? उन्होंने पत्रिका पढ़ी और कोमल से कुछ सवाल किये और कहा - "कल तुम और मम्मी हो आना वहाँ, ठीक है? पर देखना होमवर्क भी हो जाना चाहिए।"
कोमल तो जैसे उड़ने लगी ... जैसे ... उफ्फ्फ ... जैसे मैं भी नृत्य सीखने की अनुमति मिलने पर उड़ने लगी थी। मेरे पैर ज़मीन में इतने गढ़ गए थे कि मैं उड़ ही नहीं पाती थी अब। क्यों न इन पैरों को ज़मीन से अलग किया जाए? क्यों न मैं उड़ कर फिर से ज़मीन पर अपने पैरों की थपाट रखूं? ज़मीन मेरी, पैर मेरा, इच्छा मेरी पर अनुमति?
रात को कोमल को सुलाकर अपने बेडरूम में गयी। राघव अपने मैसेज पढ़ रहे थे। उनसे कहा "राघव, कोमल जहाँ पैंटिंग सिखने जायेगी वहाँ भरतनाट्यम भी सिखाते हैं। सोच रही हूँ कि वैसे भी कोमल को लेकर तो जाऊँगी तो क्यों न मैं भी नृत्य फिर से सिखना शुरू करूँ?"
राघव ने मोबाइल एक ओर रख दिया और मुझसे कहा "तुम ठीक तो हो? होश में हो? यह कोई उम्र है नाच ... "
"नाच मत कहिये इससे। नृत्य कहिये। एक कला है। दिव्य कला!"
"जो भी कहो। है तो नाचना ही न? क्या हमें शोभा देगा?"
"राघव, मैं किसी आदमी के साथ फिल्म देखने जाने कि बात नहीं कर रही जो तुम इसमें घर की शोभा का सवाल उठा रहे हो। और अगर नाच और नृत्य में फर्क नहीं तो ज़रा यह भी बता दो कि अगर तुम किसी वैश्या के साथ करोगे और मेरे साथ करोगे उससे एक ही नाम दोगे?"
"पागल हो गयी हो क्या? कैसी बेकार सी बातें कर रही हो? एक बार पूछोगी तब भी ना है और हज़ार बार पूछोगी तब भी ना है।"
"तुम हर रविवार क्रिकेट खेलने क्यों जाते हो?"
"मेरे क्रिकेट खेलने से इस टॉपिक का क्या लेना देना?"
"लेना देना है। तुम बचपन से क्रिकेट खेलते हो। तुम्हारा शौक है। मेरा शौक नृत्य है जो बचपन में मुझ से छूट गया था। आज मुझे भी अपना शौक पूरा करना है। तुम नहीं जानते राघव - नृत्य करते समय मैं किसी अलौकिक दुनिया में चली जाती हूँ। और ..."
राघव ने अचानक लाइट बंद कर दी और कहा "ना का मतलब ना। मुझे इस बारे में कोई और बात नहीं करनी। गुड नाईट।"

अँधेरा सिर्फ कमरे में ही नहीं मेरे मन में भी छा गया था। उस अँधेरे में मेरे बच्चे को अजीब घबराहट हो रही थी। और फिर से वह जुगनू दिख गया मुझे। व।ही जुगनू जो वैशाली दीदी ने भेंट किया था। इतने सालों बाद भी उतना ही जगमगा रहा था। बच्चे की घबराहट कम हुई और वह शांत सा हो गया और मैं सो गयी।

... (to be continued)

Tuesday, 29 March 2016

मैं आज बड़ा तीर मार आई

रोती रही किस्मत को अपनी
उदासी की चादर ओढ़े बैठी रही
सब केहते जीवन निरन्तर चलता रहता है
उठ, बाहर जा, कुछ बड़ा काम कर आ

सो अपने दिल पर दर्द की धुल मिटाई
मैं आज बड़ा तीर मार आई

निराशा भरी इन आँखों में
घना काजल लगा आई...
मैं आज बड़ा तीर मार आई

जो कान किसी की मधुर आवाज़ सुनने को तरसे थे
उन कानो में बालियां लगा आई ...
मैं आज बड़ा तीर मार आई

रूखे सूखे लब यह मेरे
इन पर लाली लगा लाई ...
मैं आज बड़ा तीर मार आई

जिस माथे पर शिकन पड़ गयी थी
उस पर जगमगाती एक बिंदी लगा आई ...
मैं आज बड़ा तीर मार आई

बिखरे उलझे बाल मेरे
इन्हे संवार के सजा के आई ...
मैं आज बड़ा तीर मार आई

बेरंग से कपड़े जो पहन रखे थे
उन्हें उतार रंगी साड़ी पहन आई ...
मैं आज बड़ा तीर मार आई

भीतर मन के घोर अँधेरा
मैं उस अँधेरे से बाहर निकल आई ...
मैं आज बड़ा तीर मार आई

घर से निकल कर
आगे चौराहे पर गयी

उम्र और हालात से झुकी एक बूढी औरत की मुस्कान देखी
तिनका बार बार उड़ जाने पर फिर से तिनका जोड़ती एक चिड़िया देखी
विकलांग बच्चे को सड़क किनारे हसी ख़ुशी पढ़ते देखा
गरीबी से लाचार एक बाप को मेहनत कर पसीना बहाते देखा
कड़ी धूप में ईंट और पत्थर उठाते मज़दूर देखे
जीवन का बोझ सघनता से उठाते हुए कई जीव देखे

उन्हें देख कर अनुभूति हुई ...
मैं ख़ाक बड़ा तीर मार आई!

एक बच्चा - 4

स्वप्न! महत्त्वकांक्षा! मानो जैसे मन में एक बच्चा पैदा हुआ हो। मन जैसे एक माँ हो। कभी कभी यह बच्चा बड़ा होकर सफल होता है और अपनी माँ को परमानंद देता है। कभी कभी बहुत सारे बच्चे यूँही आधे-अधूरे खो जाते हैं। आखिर एक माँ कितने बच्चे संभालेगी? और कभी कभी तो इन बच्चों को मार डालना पड़ता है। इससे बड़ा दुःख एक माँ के लिए और क्या हो सकता है? फिर सालों तक वह इस बच्चे का निर्जीव शव लिए घूमती फिरती है - और इसकी मृत्यु के साथ ही उस बच्चे को भी मुक्ति मिल जाती है। तो कभी यूँ भी तो होता है की वह बच्चा किसी और को गोद दे दिया जाता है कि - मैं तो नहीं पाल सकुंगी इससे, तुम ही इससे बड़ा कर देना।
खैर, तीन साल हो आये थे। मैं अब पैरों की थपाट यूँ बजाती - वैशाली दीदी ने कहा था कि पहले पैरों और ज़मीन के बीच का संवाद शुरू करो। बाद में घुँघरू भी जुड़ जायेंगे। नृत्य करके जो पसीना बेहता वो पूरे शारीर को महका देता। मैं अपने बच्चे की साथ  एक अलग दुनिया में ही जी रही थी और बहुत खुश थी। तीसरे साल की भरतनाट्यम परीक्षा की तैयारी चल रही थी। मगर एक शाम मेरे बच्चे के लिए बहुत बुरी खबर आई।
पापा घर पर उनके दोस्तों के साथ वाद-विवाद में व्यस्त थे। मम्मी के माथे पर चिंता की रेखाएं थी जो मुझे बिलकुल अच्छी नहीं लगती थी। पापा का ट्रांसफर होने वाला था - एक नए शहर में। १५ दिन का समय ही था हमारे पास। मेरा नृत्य! मेरी साधना! मेरा बच्चा! नैना अपने दोस्तों को लेकर रो रही थी। तब चिट्ठी और फ़ोन के अलावा संपर्क बनाए रखने का ओर कोई ज़रिया भी तो नहीं था। और मेरे दोस्त? मेरे बच्चे ने मुझे इतना व्यस्त रखा था कि मुझे दोस्तों की कभी ज़रूरत ही नहीं पड़ी। हाँ वैशाली दीदी की नृत्यशाला में लड़कियों से दो-चार बातें हो जाती वरना सारा समय ता-थई-थई-तत में चला जाता। मैं भाग कर वैशाली दीदी के पास गयी और सूखी आँखों व रुदाली स्वर में उनसे कहा  - "मैं जा रही हूँ।"
दीदी - "कहाँ?"
मैं - "पापा का ट्रांसफर हो गया है। फिर से। हम सब १५ दिन में यह शहर छोड़ कर जा रहे हैं। दीदी ... मेरा नृत्य ... दीदी ... मैं ..."
वे चुप थीं। यह बात किसी से नहीं छुपी थी कि मैं उनकी प्रिय थी। उनकी कही एक बात तो मानो मेरे मन की दीवार पर कुरेद गयी हो - "तुम जैसी नर्तकी गुरु का मान बढाती है। तुम तो जैसे नेचुरल डांसर हो।" यह बात मेरे लिए एक जुगनू समान थी। मन में जब कभी अँधेरा छा जाता तो यह जुगनू अपनी रौशनी से मेरे मन को भी रोशन कर देता। पर आज वे चुप थीं।
कुछ देर बाद उन्होंने पुछा - "कहाँ जा रहे हो?"
मैं - "गुजरात के किसी शहर में।"
दीदी - "तो तुम अपना नृत्य वहां सिख लेना।"
मैं - "पर आप तो नहीं होंगी वहां। फिर कैसे ।।। ?"
दीदी - "मैं नहीं तो कोई और होगी। नृत्य तुम्हारी साधना है और मैं तो केवल माध्यम हूँ। कोई और माध्यम ढूंढ़ लेना। मतलब कोई और गुरु ढूंढ़ लेना।"

उस दिन मेरे हाथों के साथ मेरे अश्रुओं ने भी दीदी के पैर छूए।

... (to be continued)

Monday, 28 March 2016

एक बच्चा - 3

मेरा "कुछ नहीं चाहिए" का जवाब सुनकर मेरी तरफ देख कर मम्मी बोली "जा टेबल पर प्लेटें लगा दे। खाना तैयार है।"
हम सब ने खाना खा लिया, फिर मम्मी ने और मैंने बर्तन धो लिए, किचन साफ़ कर लिया। किशोर होमवर्क कर रहा था। नैना सुलेखा जी और दिनकर सर के गुस्से का भुगतान करते हुए अपना होमवर्क तीसरी बार कर रही थी। मम्मी पापा टीवी देख रहे थे। यह सही समय रहेगा।
मैं - "पापा। मम्मी। आप से एक बात कहनी है।"
पापा - "क्या हुआ? आज फिर कोई किताब खो कर आई?"
मम्मी - "उसकी बात सुन तो लीजिए।"
मैं - "मैं आज सरिता विहार गई थी। नीलम से अपनी किताब वापस लेने। उसके घर के करीब वैशाली दीदी की डांस क्लास है। नृत्यशाला। वे भरतनाट्यम सिखाती हैं। मुझे भी सीखना है। मैं सीखूं?"
पापा मम्मी एक दूसरे की तरफ फिर मेरी तरफ देखने लगे।
मैं - "वैशाली दीदी बड़ा अच्छा नृत्य सिखाती हैं। वे बड़ी अच्छी हैं।"
पापा - "तुझे कैसे पता चला कि वे अच्छा नृत्य सिखाती हैं? तुम नाचने के बारे मैं क्या जानती हो?"
मैं - " नाच मत कहिये पापा! नृत्य कहिये। नृत्य साधना है"।
ऐसा लगा वैशाली दीदी मेरे करीब खड़ी मुस्कुरा रही हैं। मैं नृत्य के पक्ष में जो बोल रही थी।
पापा - "हाँ वही! नृत्य! क्या करेगी नृत्य सिख कर? वे मुफ्त तो नहीं सिखाएंगी।"
माँ - "यहाँ वहां खेलने कूदने से तो अच्छा है कि यह नृत्य सिख ले। मन में एक एकाग्रता आती है। और फिर इसकी पढाई की भी तो कोई चिंता नहीं है। हमेशा अच्छे अंक ही तो लाती है।"
पापा - "बस तुम यूँही बिगाड़ो बच्चों को। आज किशोर के पराक्रम की कथा सुनी?"
और किशोर के पराक्रमों की कथा कुछ १० मिनट तक चली।
मैं - "प्लीज़ पापा! प्लीज़! मैं इस दिवाली और अपने जन्मदिन का कोई तोहफा नहीं मांगूंगी। बस मुझे नृत्य सीखने की अनुमति दे दीजिये।"
पापा - "सोच कर बताऊंगा। अब जा कर सो जाओ।"
मम्मी ने मेरी तरफ देखा, मानो जैसे कह रही हो - तू सजा, चिंता मत कर।
पापा की बात सुनकर अगर मन बुझ जाता तो मम्मी को देखकर फिर से आशा का दीप जल उठता। मैं सोने गई और राम जी ... सॉरी ... श्री रामचन्द्र जी से विनती की कि वे मेरे पापा की सोच की दिशा मेरी ख़ुशी की राह पर मोड़ दे।
श्री रामचन्द्र जी बहुत अच्छे हैं। उन्होंने ठीक वैसा ही किया। सुबह दूध पीते समय मेरी आँखों मैं जैसे दो प्रश्नचिन्ह लगे हों, जिनका जवाब देते हुए मम्मी ने कहा - "पापा ने कहा है कि अगर फीस ज़्यादा न हो और अगर तेरी पढाई पर इसका असर न हो तो तू नृत्य सीख सकती है।" मैं उठ कर मम्मी से लिपट गई और उनको चूम लिया। मेरी मम्मी ने मुझे चूमते हुए कहा "पगली!" मम्मी के मुंह से "पगली" सुनना जैसे माँ यशोदा  कान्हा को "नटखट" कहे। आनंद! और तब किशोर बोल उठा - "यह ठीक नहीं। मैंने भी तो नया बैट माँगा था। मेरी तो कोई चीज़ नहीं आती। नैना को भी नया स्किप्पिंग रोप मिल गया। बस गधे कि तरह पढता रहूं।" मम्मी ने उसका सर प्यार से चूमते हुए कहा - "बस अगले महीने ही तो तेरा जन्मदिन है ना।"

यह सुनकर किशोर भी मेरी तरह ज़मीन से कुछ २ फ़ीट ऊपर उड़ने लगा। हम छोटे बच्चे। छोटी छोटी चीज़ों में हमारी बड़ी बड़ी खुशियाँ। शाम 5 बजे मैं मम्मी के साथ वैशाली दीदी की नृत्यशाला में गई और वहां उस शुभ समय से शुरू हुआ मेरे सपने साकार करने का पहला दिन। 

... (to be continued)

Sunday, 27 March 2016

sach ...



चलो छोड़ देते हैं सच को
उसकी उलझनें बड़ी होती है.
वह अकेला तो नहीं होता
उसके साथ ज़िम्मेदारियाँ भी होती है.
आँखों को चुभता है बहुत
शायद उसके हाथ में तलवार होती है.
वह माफ़ करना भी तो नहीं जानता
उसकी पहचान पत्थर सी होती है.
अब संभाल नहीं पा रही उसे मैं
कि ह्रदय में जलन सी होती है.
चलो छोड़ देते हैं सच को
उसकी उलझनें बड़ी होती हैं.

Saturday, 26 March 2016

एक बच्चा - 2

मैं उस नृत्यशाला से चल कर नहीं, कुछ उड़ कर ही बाहर निकली। मैं भी नृत्य करुँगी! वह श्रृंगार, वह मुद्राएं, पैरों की थपथप, घुंघरुओं की झंकार! उफ्फ्फ! यूँही उड़ते उड़ते घर पहुंची और देखा नैना को डांट मिल रही है। लगता है आज फिर नैना की टीचर की शिकायत आई है। अरे! मैं तो आपको बताना भूल ही  गई - नैना मेरी छोटी बहन। ८ साल की है। पेड़ों पर चढ़ना हो या किसी के घर की दीवार लांघनी हो - नैना के हाथ पाँव हर हाल मैं मुझसे बेहतर चलते थे।
मैं खड़ी रहती और नैना आम के पढ़ पर चढ़ कर फल तोड़ कर मेरी और फेंकती। हम दोनों ये आम कभी किशोर के साथ बांटते, कभी नहीं। किशोर कौन? मेरा बड़ा भाई।
पापा नैना को डांट रहे थे - "खेलने कूदने से परीक्षा में अच्छे अंक नहीं आएंगे। और आज फिर तूने कंचन को मारा? रोज़-रोज़ सुलेखा जी की शिकायतें आती रहती है।"
मैंने कहा "सुलेखा जी तो हर वक़्त शिकायत ही करती रहती हैं। वे पढ़ाती कब हैं?"
पापा ने गुस्से से मेरी तरफ देख कर कहा "एक के हाथ-पाँव ज़्यादा चलते हैं और दूसरी की ज़बान!"
घुँघरू! वैशाली दीदी! भरतनाट्यम! अचानक सब याद आया और अपना उल्लू सीधा रखने के चक्कर में मैंने नैना को फिलहाल उसके हाल पर ही छोड़ दिया और किचन में चली आई। मम्मी पराठे बना रही थीं। प्यार से उनको पुछा "मैं पराठे बेल दूँ"? मेरी तरफ देखे बिना उन्होंने कुछ ओर प्यार से मुझे पुछा "क्या चाहिए?"
मैं अपनी मम्मी की इस बात पर हमेशा खुश हो जाती। वह एक जादूगर थी। उनके पास ऐसी ख़ास आँखें थी जो हम तीन भाई-बहनो के मन के अंदर झाँक कर देख लेती की हम किस बात की रंगोली बनाए हुए हैं। उनके पास ऐसे ख़ास कान थे जो हमारी आवाज़ सुनकर बता देते की हम किस भाव से बात बता रहे हैं। उनके पास ऐसी ख़ास ज़बान थी कि हम चाहे जितने भी उदास होते उनकी मरहम सी आवाज़ सुनकर खुश हो जाते। मेरी माँ सचमुच एक जादूगर हैं।
अगर सुलेखा जी यह बात कहती तो शायद कुछ इस तरह कहती "मेरी माँ सचमुच एक जादूगरनी हैं।"

,,, (to be continued)
नींद भी कांच की तरह होती है.
टूट जाये तो बस ...
और सपने उस कांच पर लगे धब्बे जैसे होते हैं
जो कांच के टूटते ही बस ...

तुम्हे परेशान करने के हज़ार ज़रिये हैं.
मेरी शराफत तो देखो - 
अब तक कोई शरारत नहीं की ...

Friday, 25 March 2016

एक बच्चा - 1

एक बच्चा

मैं यूँ ही एकटक उन घुँघरू को देखती रही। पैरों पर बंध जाते, पैरों की थपाट से छमछम बज जाते। जैसे उन दोनो के बीच अपना कोई रिश्ता हो। घुँघरू पैरों की थपाट और पैरों घुँघरू की छमछम एसे समझ जाते मानो उन दोनो के बीच कोई संवाद चल रहा हो। मैं जानना चाहती थी कि आखिर वे क्या बातें करते थे। सो उन घुँघरूओं को उठाया और पैरों पर बाँधने बैठी, मगर ...
"अरे किससे पूछ कर इनको हाथ लगाया?"
"जी, सॉरी! मैं सिर्फ इन्हे पेहेन कर इनकी छमछम सुन्ना चाहती थी।"
"छमछम? यह घुँघरू यूँही नहीं पहने जाते! इन्हे बड़ी कड़ी नृत्य तपस्या के बाद पहना जाता है। यह एक पुरस्कार समान है। नृत्य के प्रति घोर साधना के बाद मिलने वाला पुरस्कार।"
वैशाली जी ने मेरे हाथों से घुँघरू ले लिए पर मेरी आँखों मैं उभर आये आंसुओं ने मानो जैसे उनका हाथ थाम लिया हो। सहज आवाज़ से पुछा "नृत्य सीखना चाहोगी?"
कोई मीरा से पूछ ले क्या कृष्ण को पाना चाहोगी? कोई किसी कावड़िए से पूछ ले क्या शिव को पाना चाहोगे? मैंने हाँ में सर हिला दिया। वैशाली जी ने कहा "जाओ और अपने मम्मी पापा से कहो मुझे आकर मिले। वैसे क्या उम्र होगी तुम्हारी?"
"मैं 10 साल की हूँ मैडम।"
"मैडम नहीं, दीदी कहो। अब जाओ और कल मम्मी पापा के साथ आना।"
खुश तो इतनी थी कि जी चाहा उनके गले लग जाऊं पर उनके व्यक्तित्व को छूने की हिम्मत नहीं हुई। तब मुझसे छोटी एक बच्ची आई, दीदी के पैर छुए और बोली "मेरी मम्मी मुझे लेने आ गयी है दीदी। मैं जाऊं?" दीदी ने उसके सर पर हाथ रखते हुए कहा "हाँ जाओ पर हस्त मुद्राएं याद कर लेना।"

मैं भी खड़ी हो गई और उनके पैर छू कर कहा "मैं कल मम्मी पापा के साथ आ जाउंगी  दीदी।" उन्होंने मेरे सर पर हाथ रखते हुए कहा "शाम 5 बजे आ जाना। अब जाओ।"

... (to be continued)
सुना है पिता छत्त समान होते हैं
और माता दीवार समान ...
आज एहसास हुआ
कि मैं बेघर हूँ.

Thursday, 24 March 2016


मैं क्या जानूं सच का रंग है क्या
कि झूठ का हसीन सहारा है मुझे मिला.

कुछ आकाश जैसा नीला होगा सच?
या झूठ जैसा काला?

दुल्हन के कुमकुम सा लाल होगा सच?
या झूठ जैसा काला?

पेड़ कि पत्तियों जैसा हरा होगा सच?
या झूठ जैसा काला?

कंचन जैसा पीला होगा सच?
या झूठ जैसा काला?

तेरी आँखों के जैसा बदामी होगा सच?
या झूठ जैसा काला?

दबे होंठों सा गुलाबी होगा सच?
या झूठ जैसा काला?

क्यों सच का रंग हमेशा उभर है आता?
क्यों नहीं वह झूठ कि तरह घुल जाता?

मैं क्या जानूं सच का रंग है क्या
कि झूठ का हसीन सहारा है मुझे मिला.