दस दिन
बाद हम जुनागढ़ चले गए। एक अलग जगह, एक अलग माहौल और एक अलग दुःख - वहाँ पर भरतनाट्यम सिखाने
वाला कोई नहीं था। ऐसा लगा जैसे मैं अपने बच्चे को सिर्फ 3 साल का आयुष्य ही दे पाई। 5 साल बाद फिर से पापा का ट्रांसफर हुआ और हम फिर से अलग शहर
में रहने गए। पढ़ाई पूरी करके जैसे जीवन का एक पड़ाव पूरा हुआ हो और दूसरा पड़ाव आ
पहुंचा था। काश मैं यह कह सकती कि मैंने कोई नौकरी शुरू की पर नहीं। मेरे जीवन का
अगला पड़ाव था विवाह। मुंबई से मेरी मामी अपने किसी रिश्तेदार के बेटे का रिश्ता ले
आईं। राघव से, उसके परिवार से मेरा यह जीवन जुड़
गया।
जीवन
कभी-कभी एक कपड़े जैसा लगता है जिससे कई रंगों के धागों से बुना
गया हो। बचपन का रंग, स्नेह का रंग,
दोस्ती का रंग, ज्ञान का रंग, दांपत्य का रंग, वात्सल्य का रंग ... कभी किसी के लिए कोई रंग फ़ीका तो कोई रंग उजला। और यूँही समय चलते मेरे जीवन में
गुलाबी रंग के वात्सल्य का धागा भी बुन गया। गुलाबी कैसा? बिलकुल कोमल के गालों जैसा। इतनी प्यारी गुड़िया सी मेरी
बेटी। उसके गुलाबी रंग को देख कर मैंने और राघव ने उसका नाम 'कोमल' ही रखा। गुलाब के फूल की तरह ही
कोमल ने हमारे जीवन को महका दिया। वह जब हंसती तो उसके गाल गुलाबी और जब रोती तो
नाक गुलाबी हो जाती। हमारी प्यारी बेटी कोमल।
वह बड़ी
होती गयी और जब वह 4 साल की हुई एक अच्छे से स्कूल में उसकी पढ़ाई आरंभ की । वह पढ़ने
में अच्छी तो थी ही, साथ खेल कूद में भी अच्छी खासी दिलचस्पी रखती थी। एक दिन कोमल
अपने स्कूल से एक पत्रिका ले आई जिसमे लिखा था पढ़ाई के अलावा किसी कला या अभिरुचि
के अनुसार यदि कुछ सीखने की इच्छा हो तो 'मंगल हॉबी एंड आर्ट्स सेंटर' से संपर्क किया जा सकता था। उनकी लिस्ट में मिट्टीकाम,
सिलाईकाम, ओरिगेमी, चित्रकला, संगीत और नृत्य भी था। नृत्य! कई सालों पहले जो खो गया था
वह बच्चा आज फिर से मेरी आँखों के सामने आ गया और मुझसे कहा "मुझे बड़ा होना
है। मैं कब तक छोटा रहूँ?"
मैं
उससे कुछ कह नहीं पाई। शाम को जब राघव घर आये तो कोमल ने पत्रिका उनको दिखते हुए
बोली - "पापा, मुझे पैंटिंग सीखनी है। मैं सीखूं?"
मासूमियत
और साफ़-दिल से पुछा गया वह सवाल, वह निवेदन - राघव कैसे न मानते? उन्होंने पत्रिका पढ़ी और कोमल से कुछ सवाल किये और कहा -
"कल तुम और मम्मी हो आना वहाँ, ठीक है? पर देखना होमवर्क भी हो जाना चाहिए।"
कोमल तो
जैसे उड़ने लगी ... जैसे ... उफ्फ्फ ... जैसे मैं भी नृत्य सीखने की अनुमति मिलने
पर उड़ने लगी थी। मेरे पैर ज़मीन में इतने गढ़ गए थे कि मैं उड़ ही नहीं पाती थी अब।
क्यों न इन पैरों को ज़मीन से अलग किया जाए? क्यों न मैं उड़ कर फिर से ज़मीन पर अपने पैरों की थपाट रखूं?
ज़मीन मेरी, पैर मेरा, इच्छा मेरी पर अनुमति?
रात को
कोमल को सुलाकर अपने बेडरूम में गयी। राघव अपने मैसेज पढ़ रहे थे। उनसे कहा "राघव,
कोमल जहाँ पैंटिंग सिखने जायेगी वहाँ भरतनाट्यम भी
सिखाते हैं। सोच रही हूँ कि वैसे भी कोमल को लेकर तो जाऊँगी तो क्यों न मैं भी
नृत्य फिर से सिखना शुरू करूँ?"
राघव ने
मोबाइल एक ओर रख दिया और मुझसे कहा "तुम ठीक तो हो? होश में हो? यह कोई उम्र है नाच ... "
"नाच मत कहिये इससे। नृत्य कहिये। एक कला है। दिव्य
कला!"
"जो भी कहो। है तो नाचना ही न? क्या हमें शोभा देगा?"
"राघव, मैं किसी आदमी के साथ फिल्म देखने
जाने कि बात नहीं कर रही जो तुम इसमें घर की शोभा का सवाल उठा रहे हो। और अगर नाच
और नृत्य में फर्क नहीं तो ज़रा यह भी बता दो कि अगर तुम किसी वैश्या के साथ करोगे
और मेरे साथ करोगे उससे एक ही नाम दोगे?"
"पागल हो गयी हो क्या? कैसी बेकार सी बातें कर रही हो? एक बार पूछोगी तब भी ना है और हज़ार बार पूछोगी तब भी ना है।"
"तुम हर रविवार क्रिकेट खेलने क्यों जाते हो?"
"मेरे क्रिकेट खेलने से इस टॉपिक का क्या लेना देना?"
"लेना देना है। तुम बचपन से क्रिकेट खेलते हो। तुम्हारा शौक
है। मेरा शौक नृत्य है जो बचपन में मुझ से छूट गया था। आज मुझे भी अपना शौक पूरा
करना है। तुम नहीं जानते राघव - नृत्य करते समय मैं किसी अलौकिक दुनिया में चली
जाती हूँ। और ..."
राघव ने
अचानक लाइट बंद कर दी और कहा "ना का मतलब ना। मुझे इस बारे में कोई और बात
नहीं करनी। गुड नाईट।"
अँधेरा
सिर्फ कमरे में ही नहीं मेरे मन में भी छा गया था। उस अँधेरे में मेरे बच्चे को
अजीब घबराहट हो रही थी। और फिर से वह जुगनू दिख गया मुझे। व।ही जुगनू जो वैशाली
दीदी ने भेंट किया था। इतने सालों बाद भी उतना ही जगमगा रहा था। बच्चे की घबराहट कम
हुई और वह शांत सा हो गया और मैं सो गयी।
... (to be continued)