Saturday 21 April 2018

सोचती हूँ कैसे कहूं


सोचती हूँ कैसे कहूं उससे
इन मुलाकातों का, इन बातों का
क्या असर हो रहा मुझ पर.

बोल दूँ कि अब दोस्त नहीं
दोस्त से ज़्यादा करीब लगते हो.
बोल दूँ कि अरमान जागते हैं
शायद उससे यह अजीब लगते हो.

बोल दूँ कि सिर्फ बातें करने को नहीं
छूने को भी दिल करता है.
आँखों से तराशती रहती हूँ
इस दीवानगी में हाथों को शामिल करना है.

मगर कहीं दिल खोल के रख दिया 
और उसने ऐसा सोचा ही न हो तो?
जो दोस्ती, जो रिश्ता फिलहाल खुशनुमा है
वो कहीं बेज़ार हो गया तो?

नहीं कहूँगी तो ज़िन्दगी भर अफ़सोस रह जायेगा
कह दिया और कहीं वो मुझसे दूर चला जाये?
इस कश्मकश में ज़िन्दगी के कीमती पल
कहीं मायूस हो कर न बीत जाये.

आखिर सोचा बता ही दूँ
मुनासिब वक़्त का इंतज़ार न करूँ ...
वक़्त को मुनासिब कर ही दूँ.

और फिर से उससे मुलाकात हुई.
वो मुस्कुराया और मैं शरमाई.
और फिर उसने मुझे यह बात बताई
"सोचता हूँ कैसे कहूं उससे
इन मुलाकातों का, इन बातों का
क्या असर हो रहा मुझ पर."

3 comments:

  1. Good one.but you could have taken this feeling further.MY ADVISE- don't just write simple,rather try to stretch the imagination of reader.Listen to the gazal- suna that ki woh aaenge anjuman mein-jagjit singh.sorry for reading your poem without your permission.Hope you admire the gustakhi.

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