Tuesday 16 August 2016

क्या हो तुम?

एक मिथ्या हो? भरम हो?
मेरी कल्पना हो या वास्तविकता हो तुम?
तुम्हारा एहसास होता है
पर देखूं तो तुम पास नहीं होते.

एक दिन, तुम्हे मिलकर यह बताना है
कि मेरे लिए क्या हो तुम.
मगर ...
कैसे कहूंगी?
वह शब्द कैसे होंगे
जिनसे तुम्हारी पहचान करवाऊँगी?

जो नयन व्याकुल है
रूबरू तुम्हें देखने को
उनके भौं के बीच
बिंदिया नहीं.
वहां हो तुम.

रात को जब
मुस्कुराहट का मुखौटा उतार देती हूँ,
अपने भीतर झाँक सकूँ
आँखें बंद कर के सो जाती हूँ.
बस, मेरे पास आकर लेट जाते हो तुम.

और फिर जब तुम मेरा माथा चूमते हो 
टीस तुमसे डर कर भाग जाती है.
मेरे बालों को सहलाते हो तुम
... नींद आ जाती है.

सुबह जब नींद जाती नहीं
आँखें पूरी तरह खुलती नहीं
तब तुम मुझे अपनी बाहों में ले लेते हो.
वह मुखौटे वाली नहीं
पर एक सच्ची मुस्कुराहट
मेरे चेहरे पर आ जाती है.
जब आँखें खोलती हूँ
खुद को अकेला पाती हूँ.
अभी अभी तो यहीं थे
फिर क्यों मुझे नज़र नहीं आते हो तुम?

वैराग और संसार के बीच
एक बहुत ही बारीक रेखा है.
वैराग का पलड़ा बार बार भारी हो जाता है.
संसार की तरफ जो खींच रही है मुझे
वही एक डोर हो तुम.

मेरी हर कविता में,
लेखन में
शब्दों के बीच जो रह जाती है
वह खाली जगह हो तुम.
मेरी जीवन गाथा का जो अंतिम वाक्य होगा

उस वाक्य के पूर्णविराम हो तुम.

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