Saturday 20 August 2016

बहानेबाज़ियां



शीतल पवन लहरा रहा है,
सुबह की पहली किरणे
आकाश में अपनी बाहें फेला रही है.
ऐसे मौसम में चलो कहीं टहलने चलते हैं.
"नहीं. मेरे सिर में दर्द है.
मैं नहीं आ सकता".

रिमझिम बरसात में
गरम गरम पकोड़े और भुट्टे
 - इन्हें खाने में कितना मज़ा आता है.
चलो युहीं कुछ चटर-पटर खाने चलते हैं.
"नहीं. मेरी तबियत नासाज़ है.
मैं नहीं आ सकता".

यूँ तो मनोरंजन के माध्यम हैं कई
पर दिल और दिमाग को बहलाये ...
चलो ऐसा कोई नाटक देखने चलते हैं.
"नहीं. मुझे बहुत काम है.
मैं नहीं आ सकता".

कितने संदेश भेजती रहती हूँ तुम्हे,
किसी एक का भी जवाब क्यों नहीं देते मुझे?
क्या कोई नाराज़गी है?
"नहीं. मेरा मेनेजर मेरे संदेश व्यव्हार संभालता है.
मैं कुछ नहीं देखता या पढता".

यह "सिर का दर्द",
यह "नासाज़ तबियत",
यह "बहुत काम",
यह "मेनेजर का संदेश व्यवहार" ...
मैं जानती हूँ तुम बहाने बना रहे हो,
मैं नहीं जानती कि तुम बहाने क्यों बना रहे हो.

मगर फिर भी तुमसे यूँ
बार बार पूछना अच्छा लगता है ...
इस कुतूहल से कि अब की बार
कौन सा नया बहाना बनाओगे तुम.

तो, आज रात बड़ी सुहानी है,

चलो बाहों में बाहें डाले कहीं घूमने चलते हैं.

Tuesday 16 August 2016

क्या हो तुम?

एक मिथ्या हो? भरम हो?
मेरी कल्पना हो या वास्तविकता हो तुम?
तुम्हारा एहसास होता है
पर देखूं तो तुम पास नहीं होते.

एक दिन, तुम्हे मिलकर यह बताना है
कि मेरे लिए क्या हो तुम.
मगर ...
कैसे कहूंगी?
वह शब्द कैसे होंगे
जिनसे तुम्हारी पहचान करवाऊँगी?

जो नयन व्याकुल है
रूबरू तुम्हें देखने को
उनके भौं के बीच
बिंदिया नहीं.
वहां हो तुम.

रात को जब
मुस्कुराहट का मुखौटा उतार देती हूँ,
अपने भीतर झाँक सकूँ
आँखें बंद कर के सो जाती हूँ.
बस, मेरे पास आकर लेट जाते हो तुम.

और फिर जब तुम मेरा माथा चूमते हो 
टीस तुमसे डर कर भाग जाती है.
मेरे बालों को सहलाते हो तुम
... नींद आ जाती है.

सुबह जब नींद जाती नहीं
आँखें पूरी तरह खुलती नहीं
तब तुम मुझे अपनी बाहों में ले लेते हो.
वह मुखौटे वाली नहीं
पर एक सच्ची मुस्कुराहट
मेरे चेहरे पर आ जाती है.
जब आँखें खोलती हूँ
खुद को अकेला पाती हूँ.
अभी अभी तो यहीं थे
फिर क्यों मुझे नज़र नहीं आते हो तुम?

वैराग और संसार के बीच
एक बहुत ही बारीक रेखा है.
वैराग का पलड़ा बार बार भारी हो जाता है.
संसार की तरफ जो खींच रही है मुझे
वही एक डोर हो तुम.

मेरी हर कविता में,
लेखन में
शब्दों के बीच जो रह जाती है
वह खाली जगह हो तुम.
मेरी जीवन गाथा का जो अंतिम वाक्य होगा

उस वाक्य के पूर्णविराम हो तुम.

Friday 5 August 2016

टूटी हुई चप्पल



चप्पल की पट्टी ढीली हो गयी थी, मैंने जैसे तैसे करके पैर चप्पल में डाले ... हॉस्पिटल से फ़ोन आ गया था. स्तिथि गंभीर है ... ICU में शिफ्ट किया गया है ... कुछ फैसले लेने का वक़्त आया है. मैं तुरंत हॉस्पिटल के लिए चल पड़ी. ICU में डॉक्टर ने सब समझाया - इंतज़ार करते हैं कि तबियत सुधरती है या बिगड़ती है, उस पर इलाज तय होगा. मैं ICU के बाहर बैठ गई. चार दिनों से हॉस्पिटल के चक्कर काट रही थी. अब तो वहाँ के स्टाफ से भी जान-पहचान हो गई थी. ICU के बाहर काफ़ी लोग टिफ़िन और बिस्तर के साथ बैठे हुए थे. शायद उनके इस शहर में ठहरने की कोई जगह नहीं होगी. और किसी भी वक़्त हॉस्पिटल से फ़ोन आ जाये कि जल्दी आ जाये तो यहीं रहना ठीक रहता है.

एक लड़की पोछा मार रही थी. सब ने अपने अपने सामान उठा लिए जिससे वह लड़की ठीक से पोछा कर सके. मैंने अपनी चप्पल ICU के बाहर ही उतार रखे थे ... बार बार जो अंदर जाना रहता. उस लड़की ने चप्पल हटाये और उसका ध्यान चप्पल की ढीली पट्टी पर पड़ी. उसने सब के पैरों को देखा और अंदाज़ा लगा लिया कि वे मेरे हैं. मैं उठ कर उसके पास गई और कहा "लाओ, मैं इन्हें कहीं और रख देती हूँ". उसने कहा "दीदी, इसकी स्ट्रेप तो ढीली हो गई है, टूट जाएगी". मैंने उससे चप्पल ले कर पेहेन लिए. सारा दिन हॉस्पिटल और ICU के अंदर बाहर जाना, दवाई लाने में, डॉक्टर से मीटिंग में वक़्त जाता रहता. चप्पल सिलवाने का मौका ही नहीं मिल रहा था. वह पट्टी ओर ढीली हुई जा रही थी. तीन चार बार तो मैं फिसलते फिसलते रह गई थी.

वह लड़की दूसरी बार पोछा मारने आई. "दीदी इस चप्पल कि तो पट्टी ही निकल गई है". मैंने सिर्फ सिर हिलाया. मैं जब एक कप चाय लेने केन्टीन में गई थी तब वह ढीली पट्टी निकल गई थी. आखिर कब तक मेरी जल्दबाज़ी का बोझ सहन करती. चाय अभी होंठ तक ही पहुंची थी कि कॉल आया "जल्दी ICU में चले आइए". मैं कुछ लंगड़ाती लंगड़ाती ही वहाँ गई. जब तक वहाँ बैठी रहती तो तबियत में कोई फर्क नहीं पड़ता, मगर जैसे ही दो पल के लिए दूर जाती तो तबियत गंभीर हो जाती और कॉल आ जाता. वह लड़की मेरे पास आई और बोली "दीदी, घबराइये मत. सब ठीक हो जायेगा. लोग यूँही ICU के नाम से घबरा जाते हैं. मैंने कई मरीज़ों को यहाँ से जनरल वार्ड में शिफ्ट होते देखा है. आप के लिए कुछ खाना भेजूं?" मैं इतने दिनों में पहली बार हल्का सा मुस्कुराई. पैसे देकर डॉक्टर की दिखाई गई सहानुभूति एक तरफ और इस लड़की के दिल से जागे मानवता का भाव एक तरफ. मैंने कहा "मुझे भूख नहीं". दिल पर एक तलवार सी लटक रही थी. ICU में एक जीव पर भी वही तलवार थी. ज़िन्दगी हार जाती है या जीत जाती है ... डॉक्टर, दवा, नसीब, दुआ ... दिल पर लटकती यह तलवार पेट पर हावी थी.
"दीदी कुछ तो खा लीजिये".
बात टालने के लिए मैंने उससे पुछा "क्या उम्र होगी तुम्हारी? बहुत छोटी लगती हो तूम".
"दीदी, मैं सिर्फ छोटी दिखती हूँ. मैं १९ साल की हूँ".
"पढ़ती नहीं हो? स्कूल या कॉलेज ..."
"पढ़ती थी दीदी. पापा नहीं है. सिर्फ माँ है और हम तीन बेहेन और एक भाई है. माँ लोगों के घरों में झाड़ू-पोछा, बर्तन मांझना सब करती है. खुद पढ़ी लिखी नहीं इसलिए हम बच्चों को पढ़ाने के लिए खूब मेहनत की. मगर चार-पांच सालों से मम्मी की तबियत ख़राब रहती है. सोचा माँ पर काम का बोझ कम कर दूँ, इसलिए पढ़ाई छोड़ कर दो पैसे कमाने में माँ की मदद भी करूँ. पढ़ाई में कमज़ोर तो थी ही मैं, सोचा माँ के पैसे बर्बाद क्यों करूँ? इसलिए यहाँ काम करती हूँ. माँ की दवाई के लिए भी पैसे चाहिए."

माँ. माँ का बोझ कम करना. क्या हम कभी भी अपनी माँ का बोझ कम कर सकते हैं? माँ! सिर्फ माँ नहीं होती. हमारे शरीर का जैसे अभिन्न अंग होती है. या हम ही उसके शरीर के अभिन्न अंग होते हैं. उसके जैसा निस्वार्थ प्रेम और स्नेह तो दुनिया का कोई ओर जीव हमें कर ही नहीं सकता. माँ! मेरी माँ! ICU में ... आँखें नम हो गई. पर खुद को डांटा ... अच्छा सोचो, अच्छा होगा. 
उस लड़की की शिफ्ट ख़तम हुई और वह चली गई.
देर रात को डॉक्टर ने कहा "अब आप घर जाइये. पिछले कुछ घंटों से उनकी तबियत स्थिर है. कुछ होगा तो हम बुला लेंगे". मैंने चैन की सांस ली और नीचे गई ... लंगड़ाते लंगड़ाते. इस वक़्त तो मोची भी नहीं मिलेगा. घर जाकर चप्पल बदल लुंगी. अभी आधे रास्ते ही पहुंची थी कि ICU से कॉल आया. वापस हॉस्पिटल की तरफ गई. चप्पलें बाहर पटक कर अंदर गई. वह सात घंटे ICU में ... तलवार झूल रही थी ... धागा कमज़ोर होता लग रहा था ... वहाँ के मशीन की तरह मैं भी एक मशीन जैसी ही खड़ी रही थी.

ICU से बाहर आई ... सुबह हो गई थी. वह लड़की मेरे पास आई और कहा "दीदी, यह देखिये, मैंने आपकी चप्पल सिल्वा दी." यह कहते हुए उसने मुझे मेरी चप्पल दिखाई. "सुबह सुबह यहाँ बाहर एक मोची बैठता है." मैं चप्पल को देख रही थी. अच्छे से सी हुई थी. पर्स में हाथ डाला ... १०० रूपये का नोट हाथ में आया ... मैंने उससे दिया. उसने चौंक कर मना कर दिया - "इतनी नहीं हुए, सिर्फ १० रूपये हुए. और वह भी नहीं चाहिए". मैंने नोट इसकी तरफ बढ़ाते हुए कहा "माँ के लिए". उसने दो पल के लिए सोचा. "रख लो". उसने उसने पैसे ले लिए और खुश हो कर वहाँ से अपने काम के लिए चली गई.


मैंने अपनी चप्पलें वहीँ छोड़ दी. ICU से निकलकर अब मेरे पैरों ने वैराग जो पहन लिया था.