Saturday 23 July 2016

Spaghetti


सैंडविच जैसी खिड़की से बाहर देखा
आम जैसा सूरज चमक रहा था.
परदे बंद किए,
देर हो चली, अब ऑफिस चलें.
निम्बू की कतली जैसे गाडी के पहिए
गाडी बेचारी ऑफिस तक न पहुँच सकी,
बिगड़ गई.
कुकुरमुत्ता जैसा अपना छाता खोला
और ऑफिस की ओर चलना पड़ा.
स्ट्रॉबेरी जैसी लाल नाक हो गई मेरी ...
उफ़! यह सर्दी!
सोचा एक प्याली गरम चाय पी लूँ.
टपरीवाले ने मुस्कुराते हुए पुछा
"आधा कप लेंगी या पूरा?"
उसकी मुस्कान से मक्कई के दाने जैसे
उसके दांत झलक रहे थे.
चाय का खयाल छोड़ दिया
कुछ आगे चली.
भुट्टा जो खाना था.
भुट्टे वाले के ककड़ी जैसे हाथ ...
उनसे भुट्टे सेके जा रहा था.
मुझे दिया, मैं आगे बढ़ी.
एक छोटी बच्ची पास आई.
जैतून जैसी उसकी आँखों में रस था.
नहीं रस नहीं ... शायद आंसू थे.
"भूख लगी है मेमसाब".
भुट्टा उसको ही दे दिया.
आगे बढ़ी, पार्क की तरफ चली.
बच्चे पार्क में क्रिकेट खेल रहे थे ...
टमाटर सी क्रिकेट बॉल उनकी.
आलू जैसा एक आदमी दौड़े जा रहा था.
दौड़ते दौड़ते आलू शायद छोटा हो जाए.
बेंच पर बैठ गई ...
आज ऑफिस नहीं जाना.
बेंच पर आ बैठी एक औरत
गोद में नन्हा शिशु लिए.
मूंगफली के दानों जैसे 
पदज उस शिशु के.
मैं मूंगफली खाने आगे चली.
काफी कुछ आगे चली ...
समुन्दर किनारे आ पहुंची.
मूंगफली वाली से कहा
"दस रूपये के शिशु पदज दो".
दो मिर्ची जैसे लाल होंठ उसके,
मुंह बनाते हुए बोली
"ठीक ठीक बोलिए न मेमसाब".
ठीक ठीक बोल कर
मूंगफली लिए मैं आगे चली.
सुबह का आम शाम होते ही
संतरा बन गया.
बेचारा पानी में डूब जायेगा ...
यह सोच कर उससे बचाने चली.
एक सेब जैसी औरत से टकरा गई.
"देख कर चलिए" कह कर
वह अनदेखा कर चली.
हाथों में मूंगफली,
सामने संतरा ओर
सेब आगे चला जा रहा था.
मैं समुन्दर की ओर बढ़ी.
तब वह आया, मेरा हाथ पकड़ा
और कहा "चलो यहाँ से चलते हैं".
पहली बार इंसान जैसा इंसान ही दिखा.
हम दोनों हाथों में हाथ लिए आगे चले.
अलबत्ता संतरा तो डूब गया
मगर आकाश में

एक इडली छोड़ता गया.


Saturday 16 July 2016

परछाई


मैं उस बरगद के पेड़ पर चढ़ तो गई थी मगर जब नीचे देखा तो ज़मीन से दुरी का एहसास हुआ. मैं ऊंचाई से डर गई और रोने लगी. पापा नीचे खड़े मुस्कुरा रहे थे - मेरी बहादुरी पर या बेवकूफी पर - मैं नहीं जानती. उन्होंने कहा "अब नीचे कूद जा. ज़मीन इतनी भी सख्त नहीं. तुझे चोट नहीं आएगी". मैंने रोते हुए कहा "पापा आप मेरा हाथ पकड़ लीजिए. मैं नहीं गिरुंगी". तो पापा ने कहा "अगर आज मैं तुम्हारा हाथ पकडूँगा तो तुम्हे आदत पड़ जाएगी कि अपनी मुश्किलों को हल करने के लिए अपने आप से ज़्यादा दूसरों पर निर्भर रहोगी, उनके भरोसे रहोगी". पापा की कही यह बात मेरे जीवन का जैसे नियम बन गई.
पापा, माँ और मैं यूँही जंगल से गुज़रते चले. बीच में चाहे तालाब आए, दलदल आए, आंधी आए या तूफ़ान आए ... पापा इन सब को पार करना, इनसे निपटना, इनसे जूझना सिखाते रहे. माँ हमेशा मेरा पीठ थपथपाती और सिर पर हाथ फेरते हुए कहती "मेरी बहादुर बच्ची!" - आह! यह दुनिया का सबसे बड़ा पारितोषिक था!
फिर एक दिन पापा और माँ ने मुझे कुछ बीज दिए और कहा "जा इन्हे बो आ". मैं वह बीज बोने काफी दूर चली गई थी. जब वापस लौटी तो देखा माँ अकेली खड़ी है.
"पापा कहाँ हैं?"
"बेटा, हम दोनों जब जंगल में चले जा रहे थे तो बीच में एक नदी आई थी. पापा को पार जाना था. सो वह चले गए".
"मेरा इंतज़ार क्यों नहीं किया? मैं आती तो हम दोनों भी पापा के साथ चलते".
"नदी के उस पार से जो नाव पापा को लेने आई थी वह सिर्फ उनके लिए ही थी. हम उनके साथ नहीं बैठ सकते थे".
ऐसा कह कर माँ किसी से बातें करने लगी. मुझे तो कोई नज़र नहीं आया. आश्चर्य हुआ और माँ से पुछा "किस से बातें कर रही हो माँ?"
"तेरे पापा की परछाई से. नदी पार जाने से पहले उनकी परछाई का हाथ पकड़ लिया था मैंने".
मुझे माँ पर बड़ी दया आ गई. जब पापा ही नहीं थे तो उनकी परछाई कैसे यहाँ हो सकती है? उनके जाने का ग़म मुझे भी था मगर माँ तो जैसे एक भरम में जी रही थी. मैं तब से माँ का ओर भी ख़याल रखने लगी. हम माँ-बेटी साथ में ही बैठकर जंगल के फल और बेर खाते. माँ कुछ बेर पापा की परछाई के लिए भी रखती जो मैं चुप के से खा जाती, क्योंकि मैं माँ का भरम नहीं तोडना चाहती थी. आखिर वह इसी में खुश थी. कभी माँ मेरी गोद में सिर रखती तो कभी मैं माँ की गोद में सिर रख कर सो जाती. किसी जंगली जानवर का सामना करना हो या कोई कुदरती आफत - हम माँ-बेटी एक दुसरे का हाथ पकड़ कर मिल कर सामना करते. और यूँही चलते चलते एक और नदी आई.
माँ ने मुझसे हाथ छुड़ाते हुए कहा "मेरी नाव आ गई है. मुझे इस नदी को पार करना है".
"हाँ तो साथ में करेंगे ना. तुम थोड़ी ना मुझे जंगल में अकेले छोड़ कर जाओगी?"
"नहीं बेटी, यह सिर्फ मेरे लिए है. तेरी नदी, तेरी नाव अभी बहुत दूर है".
माँ मुझसे हाथ छुड़ा कर नाव में बैठ गई और नदी पार जाने लगी.

उनके जाते ही जंगल से कई लोग आ गए. मुझे कहने लगे "आगे का रास्ता अब तुझे अकेले ही काटना है", "जाने वाले को कौन रोक सकता है?", "एक दिन सभी को नदी के उस पार जाना है" ... वह सब रोये जा रहे थे. जब उनके आंसू ओर शब्द पूरे हो गए तो वे अपनी अपनी राह पर चल दिए. मैं भी जंगल में आगे चल दी ... मुस्कुराते हुए ... क्योंकि माँ की परछाई ने मेरा हाथ जो पकड़ रखा था.

Monday 4 July 2016

अस्तु


कितनी भाग-दौड़ है. हर कोई अपने काम में
, अपने जीवन के स्पष्ट अस्पष्ट लक्ष्यों को पाने में व्यस्त है. बड़ी चहल-पहल है. बहुत सारे लोग हैं. काश कोई दो पल रुक जाता मेरे लिए. काश मैं किसी को रोक पाती. रुक जाए तो उनसे अपने दिल की बात कह सकूँ ... अपनी वेदना का चट्टान सा भार दिल पर पड़ा हुआ है उससे शायद कम कर सकूँ. ऐसा लग रहा है कि दिल अब यह भार उठा नहीं पा रहा है. गहरी चोट लगी है और खून उभर आया है पर बह नहीं पा रहा है और इसी कारण से जम गया है. यह जमा हुआ नीला सा खून दिल में बहुत चुभ रहा है. अगर किसी को दिल की दो बातें कह दूँ तो दिल में यह जमा हुआ नीला खून पारदर्शक पानी बनकर आँखों से बह जाए. मगर सब व्यस्त है. और जो व्यस्त नहीं हैं उन्हें मेरी बातें नहीं सुननी - "तुम तो हमेशा हंसाया करती हो तो हंसने हंसाने की बातें ही किया करो." मैं चुप ही रहती हूँ.

मैं समुंदर को देख रही हूँ.

कोई अगर भगवान् सा है इस जगत में तो उससे भी अपने दिल की बातें कहने की कोशिश करती हूँ. मगर वो जो भगवान् सा है मेरी बात अनसुनी सी कर देता है. इसलिए अब मैं चुप रहती हूँ.

मैं समुंदर के करीब जाती हूँ.

कभी कोई पास रुक भी जाता है तो कहता है "दो पल में जो कहना है कह दो". जीवन के अपने इस अथाह दर्द को दो पलों में कैसे कह दूँ? इसलिए मैं कुछ नहीं कहती. अब मैं चुप रहती हूँ.

मैं समुंदर के ओर करीब जाती हूँ.

ऐसा नहीं की कोई भी नहीं पूछता. कुछ अपने हैं जो अपनी व्यस्तता से समय निकाल कर पूछते हैं "क्या हुआ है तुझे?" मगर वे इस कदर मेरे अपने हैं कि उनको कुछ भी बताने से डर लगता है ... मेरे दिल के दर्द का भार उन्हें कैसे सौंप दूँ? इसलिए मैं कुछ नहीं कहती हूँ. अब मैं चुप रहती हूँ.

मैं समुंदर के तट पर खड़ी हूँ.

अब किससे कहूं? कैसे कहूं? कहूँगी तो वह तीक्ष्ण ज्वलनशील पीड़ा को बताते हुए उससे फिर से जीना पड़ेगा. नहीं ... अब और नहीं.

समुंदर में बड़ी बड़ी मौजें उठ रही हैं. मानो मुझे देख कर ख़ुशी से उछल रही हों. अतिथि संस्कार को निभाते हुए समुंदर का पानी मेरे पैरों को छू रहा है, उन्हें धो रहा है ... और जाने अनजाने में मेरा थोड़ा दर्द अपने साथ लेता जा रहा है. मैं अब थोड़ा सा हल्का महसूस कर रही हूँ. मुस्कुराते हुए अपनी दिल की बातों को, अपने दर्द को समुंदर के साथ बाँट रही हूँ. वह बड़ी धीरज से मेरी बातें सुने जा रहा है. और उससे मुझ पर दया आती है. मुझे अपने गले लगा लेता है. जानता है कि जो पारदर्शक पानी बहेगा वह उसके पानी में घुल जायेगा.

आह! अब हर जगह पानी ही पानी है ... सर के ऊपर से भी बह रहा है ... और मेरा दर्द दिल से बाहर निकलकर मेरे साथ समुंदर में बह गया.