“कुछ नहीं बदला। कुछ भी नहीं बदला।” सीमा तीन साल बाद वापिस गाँव आई। बस से उतर कर गांव में अपनी दादी के घर की ओर चलने लगी। बीच में मंदिर आया। अभी भी वैसा। फिर बरगद का पेड़ आया। वह भी पहले जैसा। और उसे शिवम् मिल गया। वह भी पहले जैसा। शिवम् ने उसको देखा, खुश हो कर उसकी तरफ बड़ा और रुक गया। शायद सीमा अब भी नाराज़ हो।
“बड़े दिनों बाद?”
“हां। पापा ने कहा दादीजी की तबियत ठीक नहीं। जा मिल आ। सो मैं आ गई। कैसे हो तुम? और घर में सब?”
“सब बढ़िया। रुचि की शादी हो गई, दीपू अब कॉलेज में है, शहर में। निकी की मंगनी हो गई, चार महीने बाद शादी। बाबूजी अभी भी चल नहीं पाते और मां ने विद्यालय में पढ़ाना छोड़ दिया है। आँखें कमज़ोर हो गई उनकी।”
सीमा उसे देख रही थी। प्रेम जितना पुराना उतना ही गहरा। यह अलग बात थी कि दोनों की दिशाएं अलग थी, साथ न चल पाए। अगर साथ होते तो…
“चलो, तुम्हे दादीजी के घर छोड़ आता हूं। लाओ तुम्हारा सामान।”
“न, मैं उठा लूंगी।
“पर यह तो भारी है।”
“फिर भी तुम्हारे बोझ से कम।”
~ शीतल सोनी
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