वो नाराज़ है. जैसे मैं उनसे नाराज़ थी कुछ महीनों पहले. वो गलियाँ जहाँ मैंने अपनों के साथ बिताए हुए खूबसूरत वक़्त का पानी छिड़का था और उस छिड़के हुए पानी से जहाँ यादों के महकते फूल खिले थे … वे गलियाँ नाराज़ है. क्यों न होती. मैंने उनको गुस्से में छोड़ जो दिया था. क्या करती … जिन गलियों की रौनक मेरे अपनों से बनी रहती थी, वे सारे अपने एक एक कर के बिछड़ गए. जहाँ से बारात गुज़री थी वहीं से जनाज़ा भी गुज़रा. ऐसा लग रहा था कि जैसे वे गलियाँ हस रही थी मेरी इस नादान सोच पर कि सब साथ रहेंगे. मगर वे बेचारी बेकसूर थी. और यह बात उन गलियों को छोड़ कर जाना. अब जब लौटी हूँ तो गलियाँ अनजान बनी हुई है, नाराज़ है.
ऐसी नाराज़गी के बीच रहने से अच्छा मैं फिर चली जाऊँ … नए शहर की नई गलियों में. और जैसे ही चल दी तो पीछे से उन गलियों ने कहा “तू हमसे नाराज़, हम तुझसे नाराज़ हैं, जो भी हो हम तेरे अपने हैं”.
बेहद सुंदर रचना । धन्यवाद आपका 🙏🙏👌
ReplyDeleteधन्यवाद 🌹
DeleteNicely expressed through a beautiful story
ReplyDeleteWould you please tell me the theme you are using for Bloggers.com
ReplyDeleteआप दुखी दुखी सही नही लगते 🤕
ReplyDelete👌👌
ReplyDeleteGood one 👌👍
ReplyDeleteThank you
ReplyDeletewah
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