Saturday, 30 December 2017

क्यों?


क्यों लोग ज़िन्दगी से चले जाते हैं? क्यों जाना होता है उन्हें? एक-एक कर के लोग दूर चले जाते हैं. कभी किसी शख्स पर हाथ रखकर उसे पाने की ख्वाहिश रखती हूँ तो किस्मत उसे फ़ौरन मुझसे दूर कर  देती है. किसी भी बहाने से ... ज़िन्दगी के हालात, शादी, काम, नौकरी और सबसे बड़ी वजह - मौत. सब चले जाते हैं. जब तक साथ खड़े होते हैं तो ज़मीन स्थिर लगती है. उनके जाते ही ऐसा लगता है जैसे आप के आसपास दलदल है. पाँव आगे बढ़ाते ही आप विषाद के उस दलदल में फसने लगते हैं. और फिर कोई आता है जो आपको उस दलदल से निकाल कर, उस जगह से दूर ले जाता है. मगर फिर वह भी आपको छोड़ कर चला जाता है. आप फिर से अपने आप को उसी स्थिति, उसी हालत में पाते हैं. और इसी वजह से मैंने किसी का भी हाथ थामना छोड़ दिया है. क्योंकि मैं जानती हूँ जो आज मेरा हाथ थामेगा वह कल छोड़ देगा.
क्यों लोग ज़िन्दगी से चले जाते हैं? जाना ही होता है तो क्यों ज़िन्दगी में आते हैं? क्यों उनका साथ इतना क्षणिक होता है? क्यों उन्हें अपने साथ रखने की हर मुमकिन कोशिश उन्हें हमसे ओर भी दूर कर देती है?
क्यों मेरी ज़िन्दगी महज़ एक सराय है जहाँ लोग आते तो हैं मगर रुकते नहीं? क्यों मैं किसी का घर नहीं?


Sunday, 17 September 2017

बोलो हुआ क्या है?


आओ बैठो पास मेरे
बोलो, हुआ क्या है?

बातों की लड़ी
जो कभी ख़तम ही नहीं होती थी
मिज़ाज पर भी अपनी
खूब चलती थी.
आज मौन छा गया है,
बोलो, हुआ क्या है?

वह हंसना हँसाना
बेवजह रूठना, प्यार से मनाना
किसी अनदेखी अनसुनी ग़लतफहमी में
सब कुछ खो गया है,
बोलो, हुआ क्या है?

क्यों यह खिलखिलाता सा चेहरा मुरझाया सा है?
जिन आँखों में कल के सपने चमकते थे
उन पर आज मायूसी का पर्दा क्यों है?
माथे पर यह शिकन क्या है?
बोलो, हुआ क्या है?

तुम नासाज़, तनहा, नाराज़,
परिंदे से, मगर बेपरवाज़
न कोई शोर, न कोई आवाज़,
इंसान जैसे पुतला हो गया है,
बोलो, हुआ क्या है?

मैं तुम्हारे दर्द दूर तो नहीं कर सकुंगी,
बस तुम्हारे माथे पर हाथ सेहला लुंगी,
होंसला बढ़ने को तुम्हारे, दो लफ्ज़ बोल दूंगी.
शायद दिल को तुम्हारे, थोड़ा सा ही सही
मगर सुकून तो मिले.
ज़िन्दगी जीने में थोड़ी सी ही सही
राहत तो रहे.

आओ बैठो पास मेरे,
बोलो, आखिर हुआ क्या है?


Tuesday, 5 September 2017

पितृ गुरु भवः

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बचपन से लेकर जवानी तक और जवानी से लेकर बुढ़ापे तक हम निरंतर कुछ न कुछ सीखते रहते हैं. कुछ याद रखते हैं, कुछ पर अमल करते हैं, कुछ भूल जाते हैं. अपने बचपन में सीखी हुई एक बात आज जैसे मेरे जीवन का एक सत्याचरण बन गई है.
मैं आठ साल की थी. एक बड़ी बहन और एक बड़े भाई के बाद अपने माँ-बाप की तीसरी प्यारी संतान. जिनके बड़े बहन-भाई होते हैं उनकी एक अलग ही दादागिरी होती है. बात बात पर दोस्तों को डराना "भाई को बोल दूंगी न वो तुम्हे देख लेगा" या "बोल दूँ जाकर दीदी से?"
और बस कुछ इस वजह से बात बात पर रोने की आदत भी पड़ गई. कुछ भी परेशानी या बात होती तो रोने लगती और इसका जादू यह होता कि मम्मी, पापा, दीदी या भाई सब ठीक कर देते. बचपन में एक उपनाम मिल गया था मुझे. रोतलु. मगर मुझे इससे कोई फर्क नहीं पड़ता. बस मैं इतना समझ गई थी कि रोने से मेरा काम कहीं अटकता नहीं. मगर फिर एक दिन ...
मैं और मेरे अड़ोस-पड़ोस में रहने वाली मेरी सहेलियां सब स्कुल बस से नीचे उतर कर बस-स्टॉप पर खड़ी थी. मेरी एक सहेली के हाथों में एक चार्ट पेपर था. उसके जूते की डोरी खुल गई थी और उसने मुझे चार्ट पेपर थमाते हुए कहा "इसको ज़रा पकड़ो, मैं डोरी बांध लूँ". मैंने चार्ट पेपर तो पकड़ा मगर अब इसे मेरी बदकिस्मती कहिये या चार्ट पेपर की या मेरी सहेली की ... मेरे करीब से एक लड़की तेज़ी से चली और उसकी झपेट में चार्ट पेपर आया, फट गया. मेरी सहेली ने डोरी बाँध कर ऊपर मेरी तरफ और मेरे हाथों में उसका फटा चार्ट पेपर देख वह गुस्से में हो गई. "आज डाइग्राम बना कर कल टीचर को देना था. यह तुमने क्या किया?" मैंने सफाई देते हुए कहा "ज़बरदस्ती थोड़ी किया? और मुझसे थोड़ी फटा? फिर भी सॉरी". मगर मेरी सहेली ने अचानक से मुझे चाँटा मारा. मुझे एक दम से रोना आ गया. चांटे पर. सहेली ने मारा उस पर. और सबसे ज़्यादा इस बात पर कि मेरे दीदी या भाई भी मेरे साथ नहीं थे तब.
मैं रोती हुई घर गई और घर जैसे जैसे करीब आने लगा मेरे रुदन की आवाज़ बढ़ने लगी. घर पहुँचते ही स्कुल-बेग को रखते हुए पापा के पास गई और सुबक सुबक कर कहने लगी "पापा! मुझे वैशाली ने मारा!"
पापा किसी से फोन पर कुछ परेशानी से बात कर रहे थे मगर मुझे तो फिलहाल मेरी परेशानी ही नज़र आ रही थी. अपनी आवाज़ और रुदन की तीव्रता बढ़ाते हुए मैंने कहा "पापा! वैशाली ने बहुत ज़ोर से चाँटा मारा! मेरी तो कोई गलती भी नहीं थी". मगर फिर भी पापा का ध्यान उस अदृश्य व्यक्ति पर था जिनसे वे फोन पर बात कर रहे थे. यूँ अनदेखा-अनसुना हो जाने का दर्द अब चाँटे के दर्द से बढ़ने लगा. पापा ने फोन रखा और मैंने फिर से उच्चतर स्वर में कहा "पापा! मुझे वैशाली ने मारा!" पापा ने मेरी तरफ देख कर कहा "कहाँ मारा?" मैंने बायां गाल दिखाते हुए कहा "यहाँ". पापा ने बिन कुछ कहे मुझे दाहिने गाल पर चाँटा मारा. स्तब्ध. बिलकुल स्तब्ध हो गई मैं. रोना अचानक से बंद हो गया मेरा. और पापा ने कहा "वैशाली के पास दो हाथ हैं, उसने तुझे मारा. भगवान ने तुझे दो हाथ नहीं दिए हैं क्या? मेरी बेटी है तो जाकर उसे कस के तमाचा मार के आ वरना यहाँ आकर रोने की ज़रूरत नहीं".
अचानक मम्मी किचन से आई मुझे अपने साथ ले गई. कपडे बदल कर खाना खाते हुए मम्मी ने बड़े प्यार से समझाया "पापा की कोई पेमेंट रुकी हुई है. फिलहाल परेशां हैं. और फोन पर बात कर रहे थे न. तुम्हे समझाया है कि जब कोई फोन पर बात कर रहा होता है तब बीच में नहीं बोलते. चल मेरी अच्छी बच्ची". और माँ ने मेरे गाल चूम लिए. मरहम! ऐसा मरहम आजतक इस दुनिया में बना ही नहीं. मगर न जाने क्यों पापा की बात दिल में बैठ गई.
दूसरे दिन जब स्कुल-बस के लिए बस-स्टॉप पर खड़े थे तब वैशाली ने अपना चार्ट पेपर दिखाते हुए कहा "देख, तेरी बेवकूफी के बावजूद मैंने डाइग्राम पूरा किया". और मेरे दिमाग में पापा के शब्द चरखी की तरह घूमने लगे. घूमते घूमते वो शब्द मेरे हाथ तक पहुंचे और मैंने कस के वैशाली को चाँटा मारा. वो चौंक गई और उसकी आँखों में आँसू आ गए. "मैंने कहा था न कल कि जान-बुझ कर नहीं किया. माफ़ी भी मांगी थी न? अब बात ख़तम करो".
स्कुल-बस आ गई और हम सब अंदर चढ़ गए. आज पता नहीं क्यों ... हाथों में जैसे पर आ गए हो. बहुत खुश थी. और बस आठ साल की उम्र में मिली वो सीख आज तक नहीं भूली. जब तक आप खुद के लिए नहीं लड़ सकते, लोग आपको सताते और दबाते रहेंगे. इससे भी महत्वपूर्ण - जितना आप खुद के लिए लड़ सकते हैं उतना कोई ओर व्यक्ति आपके लिए नहीं लड़ सकता. एक व्यक्ति ढाल भी बन सकता है और तलवार भी. जो खुद के लिए लड़ सकता है वो ओरों के लिए भी लड़ सकता है, उनकी रक्षा कर सकता है. अपने जीवन के इस अमूल्य बोध-पाठ के लिए मैं अपने गुरु सामान पापा की सदा आभारी रहूँगी.
वापस घर पहुँच कर मैं मुस्कुराते हुए पापा के पास गई और उनका मिज़ाज देखा. वे शांति से कुछ पढ़ रहे थे. मैंने बड़े मीठे स्वर में कहा "पापा, पता है आज न मैंने उस वैशाली को कस के तमाचा मारा!" और यह कहते हुए मानो जैसे मैं कोई दौड़ में अव्वल आई हूँ वैसे ख़ुशी मेहसूस हुई.

अलबत्ता मैंने अपने जीवन में ऐसा भाव सबसे पहली बार अपने पापा के चेहरे पर देखा - हँसे या डाँटे?

Sunday, 9 April 2017

बेहतर




मैंने टिकिट संभाल कर अपने पर्स के उस हिस्से में रखी जहाँ मैं पैसे रखती थी. मेरे पर्स में तो जैसे एक छोटी अलग ही दुनिया थी ... अनगिनित चीज़ों से भरी पड़ी और जिनका मुझे यकीन था कि कभी न कभी मुझे काम आएगी.
सब कुछ पेक कर लिया था. दोस्तों और रिश्तेदारों को भी बिना बताये जा रही थी. मुझे विदाई पसंद नहीं थी. रोना-धोना, "हमें छोड़ के मत जाओ" ... यह सारी बातें बेशक दिल से कही जाती मगर मेरे कदम जो आगे बढ़ना चाहते थे उनको यह सब बातें एक ज़ंजीर सी लगती. "मोह का धागा - न टूटता है, न छूटता है". सिर्फ उससे बताया था मैंने. पर अब लग रहा था कि यह भूल हुई थी मुझसे.
जैसे मेरे दिल में लिए गए उसके नाम को उसके कान सुन लेते ... वह आ गया.
"ज़िद्द नहीं छोड़ोगी न?"
"देखो! मुझे समझने की कोशिश करो. अब इस शहर में मेरा दम घुट रहा है".
"पांच सालों से तो तुम्हे कोई शिकायत नहीं थी इस शहर से".
"हाँ. पांच सालों से कोई शिकायत नहीं थी मगर अब मुझे यह शहर वह नहीं दे पा रहा जो बतौर एक लेखिका मुझे चाहिए. मैं अपने आपको बेहतर बनाना चाहती हूँ, बेहतर लिखना चाहती हूँ".
"अलका, मुझे तुम्हारी बातें ..."
"नहीं समझ आ रही न? मुझे अब इस शहर की गलियां, यहाँ के नज़ारे पुराने लगते हैं. मुझे इनमे से कोई कहानी अब नहीं मिलती क्योंकि मैं इस शहर पर कई कहानियां लिख चुकी हूँ. जितना रस इसमें से निकाल सकती थी, प्रेरणा का वह रस निकाल चुकी हूँ. वही दुकाने, वही बाग़, वही गली, वही चौराहे, वही लोग ..."
"लोग? उन लोगों में से मैं भी तो एक हूँ न अलका? तुम्हारे दोस्त भी है, रिश्तेदार भी है".
"हाँ और उन लोगों में जैसे एक ठहराव सा आ गया है. कहीं न कहीं उन सब को अपनी कहानियों का पात्र बना चुकी हूँ. समझने की कोशिश करो, मैं कुछ बेहतर करना चाहती हूँ".
वह मेरे पास आया. उसकी आँखों में सवालों की नमी थी. "मत जाओ अलका. प्लीज़ मत जाओ!"
"मुझे अब यूँ मत रोको. मैं एक नदी की तरह बहना चाहती हूँ, नदी कब कहीं किसी एक तट पर रुक जाती है? मैं तालाब बनकर नहीं रह सकती. जैसे नदी का पानी साफ़ होता है वैसे मेरी कल्पना अलग अलग शहरों से गुज़रते हुए साफ़ बहती है. जिस दिन मेरी कल्पना कहीं रुक गई वह एक तालाब बन जाएगी और ..."
"मत जाओ अलका, प्लीज़!", यह कह कर उसने मुझे अपनी बाहों में ले लिया. जहां से उसकी बाहों के दायरे शुरू होते वहीँ से मेरी सोच की हद ख़तम होती. न मैं कुछ ओर देख पाती, न सुन पाती. केसर जैसे दूध में घुल जाये, मैं उसके प्रेम में घुल जाती. रात तो हसीन थी ही, हमने रात को महका भी दिया.
सुबह ५ बजे जब अलार्म बजा मैंने जल्दी से बंद कर दिया. अगर वह जाग गया तो फिर से मुझे रोकने की कोशिश करेगा. उसका हाथ अपने पेट पर से धीरे से हटाया और नहाने चली गई. चुपचाप तैयार हो कर, अपनी बैग और पर्स लेकर स्टेशन के लिए निकली. जाने से पहले उसे जी भर कर देखा ... उसके घुंघराले बाल, उसकी तेज़ आँखों पर घनी भौरें, उसकी गर्दन पर तिल, उसके होंठ जिन्होंने मेरे बदन के हर अंग को बेहद प्यार से छुआ था.
स्टेशन पहुँच कर मैंने अपने पर्स से टिकिट निकाली तो देखा साथ में एक चिट्ठी भी थी.
"मैं जानता हूँ तुम मेरी गहरी नींद की आदत का फ़ायदा उठा कर चुपचाप चली जाओगी. मेरे लाख मना करने के बावजूद. हाँ मैं तुम्हारी यह बातें नहीं समझ पा रहा कि तुम अपने आप को बेहतर बनाना चाहती हो ... क्योंकि मेरे लिए तो तुम अच्छी या बेहतर नहीं, बेहतरीन हो".

मेरे एक हाथ में ट्रेन की टिकिट थी - कीमत रु. १५० और आशा. दूसरे हाथ में उसकी चिट्ठी थी - कीमत अनमोल और प्रेम.

Sunday, 12 February 2017

'मैं ठीक हूँ'



सात बजने ही वाले थे. सब आते ही होंगे. मैंने एक बार फिर किचन में जाकर सारे खाने की तैयारी देख ली. जमुना को फिर से समझा दिया कि पहले क्या कुछ खाना गरम कर के परोसना रहेगा. मेरे साथ जमुना भी सुबह से तैयारियों में जुटी हुई थी. बहुत खुश थी वह मेरे लिए. उसकी 'दीदी' को अपनी कहानियों के लिए मिली हुई उपलब्धि और पुरुस्कार की ख़ुशी उसके चेहरे से छलक रही थी. फिर यह हम दोनों की बीच की ही बात थी कि आजकल मैं अपना हर नया लेख सबसे पहले अब उसे पढ़ कर सुनाती. कुछ उसकी समझ में आता और कभी तो वह कह देती "दीदी, कुछ ज़्यादा समझ नहीं आया पर पढ़ने में अच्छा लगा जो भी आपने सुनाया". वह साफ़ दिल की थी इसलिए शायद सिर्फ साफ़ शब्दों को ही समझती थी. उपमा और अलंकारो से अनजान थी.
दरवाज़े पर घंटी बजी और बस मेहमानों का सिलसिला शुरू हुआ ... कुछ दोस्त और कुछ करीब रिश्तेदार जिन्होंने हक़ से मुझसे मेरी ख़ुशी में शामिल होने का अनुरोध किया था. रिश्तेदारों में कुछ बड़े बुज़ुर्ग जिनका आशीर्वाद मेरे साथ था और दोस्तों में वे सब जिन्हें में वक़्त-बेवक़्त कॉल करके परेशान करती रहती. रात के २ बजे फ़ोन करके पूछती कि मुंबई में ऐसी कोई जगह है जैसी मैंने अपनी इस कहानी में लिखी है? तुम तो जयपुर से हो तो बताओ वहां क्या ऑटो-रिक्शा मीटर के हिसाब से चलती है? तुम दक्षिण भारत के शहर से हो तो बताओ वहां क्या लोग सचमुच चाय से ज़्यादा कॉफी पीते हैं? क्या करूँ? कहानी का खयाल भी बेवक़्त आता तो ज़ाहिर है मेरे कॉल भी बेवक़्त जाते. कॉल ख़तम होने के बाद अगर दोस्तों ने मुझे कोसा होगा तो मुझे नहीं पता पर मेरा कॉल हमेशा उठाया. शैतानों का नाम लिया और शैतान हाज़िर! रणवीर आया.
सारे मेहमान कुछ न कुछ भेंट और उपहार लाये थे पर रणवीर ने मुझसे कहा "मेरा गिफ्ट कहाँ है?"
मैंने हंस कर पुछा "क्यों? तुम्हारा जन्मदिन है या आखिर बोर्ड की परीक्षा में पास हो गए?"
"तुम जिस अंदाज़ से हम दोनों की बातों को अपनी कहानियों में शामिल करती हो, मुझे हर वक़्त कॉल करके परेशान करती हो उस हिसाब से मेरा भी हिस्सा बनता है तुम्हारे इन गिफ्ट में से".
"ठीक है रणवीर, तुम्हे बख्शीश में मैं अपनी कोई पुरानी पेन दे दूंगी."
और यूँही बाकी सारे दोस्तों और रिश्तेदारों के साथ हँसते, बातें करते हुए खाना भी परोसा गया. ख़ुशी के मौके पर वक़्त को जैसे पर लग जाते हैं और उड़ान तेज़ हो जाती है. ११ बज गए और एक एक करके सब अपने घर जाने लगे. सिवाय रणवीर. उसने मेरे और जमुना के साथ साफ़ सफाई में मदद की. काम ख़तम हो गया तो मैंने वाइन की एक बोतल खोली और हम दोनों के लिए दो ग्लास भरे.
"थैंक यू रणवीर. इस तरह मदद करने के लिए. अब इसके लिए अलग से कोई बख्शीश देनी पड़ेगी?"
"यह सब बातें छोडो. पहले यह बताओ क्या बात है? क्यों उदास हो?"
"नहीं रणवीर, मैं बिलकुल उदास नहीं. मुस्कुरा तो रही हूँ".
"मुझसे तो झूठ बोलो ही मत. तुम्हे आईने की तरह पढ़ लेता हूँ. अब बोलो क्या बात है?"
मेरी आँखें नम हो गई. "जिस माँ ने मेरी इस शोहरत और कामयाबी की दुआएं मांगी थी आज वह मेरी इस ख़ुशी में शामिल नहीं है. यह सब अधूरा सा लगता है. उन्हें मैं अपनी कहानियां सुनाया करती, वह मुझे अपना अभिप्राय देती, मेरी गलतियां बड़े प्यार से निकालती और जब कभी मेरा कोई लेख किसी बड़े अख़बार या मैगेज़ीन में छपता तो वह अड़ोस-पड़ोस में पेड़े बांटती और सबसे पहले मुझे पेड़ा खिलाकर मेरा मुँह मीठा करती. आज यह रोशनियां,यह अवार्ड, यह पार्टी, यह सारे तोहफे ... मेरी माँ के उस पेड़े की तुलना में कुछ भी नहीं है." और इसी के साथ नम आँखें में से आंसू बहने लगे.
रणवीर ने अपना रुमाल देते हुए कहा "अरे पगली, यह सोचा है तुम जब कभी यूँ रोती हो तो उनको कितना दुःख होता होगा. वे आज जिस दुनिया में है, यकीन मानो तुम्हारी यह सब कामयाबी देख कर कितनी खुश हो रही होगी. तुम्हे तो खुश होना चाहिए कि तुम तो उनकी मृत्यु के बाद भी उन्हें खुश रख सकती हो. हाँ, ऐसा करते हैं कि कल किसी अच्छे से हलवाई के यहाँ से पेड़े खरीदते हैं और अड़ोस-पड़ोस और किसी वृद्धाश्रम में बाँट देते हैं. तुम्हारी माँ भी ऐसा करती न?"
होठों पर अब मुस्कान की छोटी बेहेन आ गई. और फिर खयाल आया ... "रणवीर, तुम्हे कैसे पता कि मैं उदास हूँ? मैं तो सब के साथ हंसी मज़ाक कर रही थी."
"तुमने ही मुझे बताया".
"मैंने? नहीं तो."
"हाँ, तुमने. मैं जब कभी तुमसे पूछता हूँ कि कैसी हो तब तुम्हारा जवाब हमेशा कुछ उटपटांग ही रहता है ...'बहुत खूबसूरत हूँ', 'पढ़ीलिखी डायन हूँ', 'तुम सोच रहे हो उससे ज़्यादा पागल हूँ' ... मगर आजे पहली बार जब तुमने यह जवाब दिया कि 'मैं ठीक हूँ' ... बस मैं समझ गया कि तुम ठीक नहीं हो".


दोस्त!

Tuesday, 3 January 2017

अँधेरा



बड़ी ही शान्ति है ... यह अँधेरा मेरे पास है. कितना प्यारा है न यह अँधेरा? नहीं? शायद आपको रौशनी और चिरागों की आदत होगी. अच्छी बात है ... मुझे भी ऐसे किसी चिराग पाने की चाहत थी. रौशनी भरे बाज़ार में चिरागों की जगमगाहट को देख कर धोखा खा गई और चिराग की जगह सिर्फ उसकी तस्वीर ले आई. जब अँधेरे कमरे में उस तस्वीर को रखा तब अपनी गलती का एहसास हुआ. अब क्या करती? औरों के घरों में जब कभी जलते हुए चिराग देखती तब इस मुझे मेरी गलती का एहसास जला देता. बाज़ार से दीया लाने का मौका भी फिर एक ही बार मिला था.

मैंने लोगों को खुदा से चाँद और तारे मांगते हुए देखा ... उन्हें चाँद और तारे मिलते हुए भी देखा. सोचा खुद भी चांदनी मांग कर देखूं. अमावस की रात आ गई. सोचा तारों की रौशनी पा कर खुश हो जाऊं. काले बदल छा गए आसमान में. उस अँधेरे में दम घूँट रहा था. किस से जा कर फ़रियाद करूँ? अँधेरे की वजह से किसी को मेरे आंसू भी तो नज़र नहीं आ रहे थे.

फिर सोचा क्यों न अपने हाथों से ही मिटटी का एक दीया बनाऊं? आशा की बाती बनाई और प्रेम से घी डाला और जलाया. मगर उसी वक़्त एक तेज़ हवा का झोंका आया और लौ बुझ गई. घोर अँधेरा! फिर से वही कोशिश की ... फिर से वही तेज़ हवा का झोंका. कुछ देर तक तो यह ज़िद जारी राखी मगर फिर अंदर से एक टीस सी उठी. आशा का दीया जितनी बार निराशा में बुझ जाता मानो जैसे मुश्किल से घुटनों के बल खड़ी हुई हूँ और ज़ोर से गिरा दी गई जाती हूँ.


तब अँधेरे ने संभाल लिया और कहा "मैं हूँ ना". कितना अपनापन था उसके पास. मैंने तब से रौशनी की चाहत छोड़ दी. और अब खुश हूँ. क्योंकि मैंने तो चिराग और रौशनी की चाहत की और उन्होंने मुझे ठुकराया ... वह अँधेरा ही था जिसने मुझे चाहा, गले लगाया और अपनाया.