मैं उस बरगद के पेड़ पर
चढ़ तो गई थी मगर जब नीचे देखा तो ज़मीन से दुरी का एहसास हुआ. मैं ऊंचाई से डर गई
और रोने लगी. पापा नीचे खड़े मुस्कुरा रहे थे - मेरी बहादुरी पर या बेवकूफी पर -
मैं नहीं जानती. उन्होंने कहा "अब नीचे कूद जा. ज़मीन इतनी भी सख्त नहीं. तुझे
चोट नहीं आएगी". मैंने रोते हुए कहा "पापा आप मेरा हाथ पकड़ लीजिए. मैं
नहीं गिरुंगी". तो पापा ने कहा "अगर आज मैं तुम्हारा हाथ पकडूँगा तो
तुम्हे आदत पड़ जाएगी कि अपनी मुश्किलों को हल करने के लिए अपने आप से ज़्यादा
दूसरों पर निर्भर रहोगी,
उनके भरोसे रहोगी". पापा की कही यह बात मेरे जीवन का
जैसे नियम बन गई.
पापा, माँ
और मैं यूँही जंगल से गुज़रते चले. बीच में चाहे तालाब आए, दलदल
आए, आंधी आए या तूफ़ान आए ... पापा इन सब को पार करना, इनसे
निपटना, इनसे जूझना सिखाते रहे. माँ हमेशा मेरा पीठ थपथपाती और सिर पर हाथ फेरते हुए
कहती "मेरी बहादुर बच्ची!" - आह! यह दुनिया का सबसे बड़ा पारितोषिक था!
फिर एक दिन पापा और
माँ ने मुझे कुछ बीज दिए और कहा "जा इन्हे बो आ". मैं वह बीज बोने काफी
दूर चली गई थी. जब वापस लौटी तो देखा माँ अकेली खड़ी है.
"पापा कहाँ हैं?"
"बेटा, हम दोनों जब जंगल में चले जा रहे थे तो बीच में एक नदी आई थी. पापा को पार
जाना था. सो वह चले गए".
"मेरा इंतज़ार क्यों नहीं किया?
मैं आती तो हम दोनों भी पापा के साथ चलते".
"नदी के उस पार से जो नाव पापा को लेने आई थी वह सिर्फ उनके लिए ही थी. हम उनके
साथ नहीं बैठ सकते थे".
ऐसा कह कर माँ किसी से
बातें करने लगी. मुझे तो कोई नज़र नहीं आया. आश्चर्य हुआ और माँ से पुछा "किस
से बातें कर रही हो माँ?"
"तेरे पापा की परछाई से. नदी पार जाने से पहले उनकी परछाई का हाथ पकड़ लिया था
मैंने".
मुझे माँ पर बड़ी दया आ
गई. जब पापा ही नहीं थे तो उनकी परछाई कैसे यहाँ हो सकती है? उनके
जाने का ग़म मुझे भी था मगर माँ तो जैसे एक भरम में जी रही थी. मैं तब से माँ का ओर
भी ख़याल रखने लगी. हम माँ-बेटी साथ में ही बैठकर जंगल के फल और बेर खाते. माँ कुछ
बेर पापा की परछाई के लिए भी रखती जो मैं चुप के से खा जाती, क्योंकि
मैं माँ का भरम नहीं तोडना चाहती थी. आखिर वह इसी में खुश थी. कभी माँ मेरी गोद
में सिर रखती तो कभी मैं माँ की गोद में सिर रख कर सो जाती. किसी जंगली जानवर का
सामना करना हो या कोई कुदरती आफत - हम माँ-बेटी एक दुसरे का हाथ पकड़ कर मिल कर
सामना करते. और यूँही चलते चलते एक और नदी आई.
माँ ने मुझसे हाथ
छुड़ाते हुए कहा "मेरी नाव आ गई है. मुझे इस नदी को पार करना है".
"हाँ तो साथ में करेंगे ना. तुम थोड़ी ना मुझे जंगल में अकेले छोड़ कर जाओगी?"
"नहीं बेटी,
यह सिर्फ मेरे लिए है. तेरी नदी, तेरी
नाव अभी बहुत दूर है".
माँ मुझसे हाथ छुड़ा कर
नाव में बैठ गई और नदी पार जाने लगी.
उनके जाते ही जंगल से
कई लोग आ गए. मुझे कहने लगे "आगे का रास्ता अब तुझे अकेले ही काटना है", "जाने वाले को कौन रोक सकता है?",
"एक दिन सभी को नदी के उस पार जाना है" ... वह सब रोये
जा रहे थे. जब उनके आंसू ओर शब्द पूरे हो गए तो वे अपनी अपनी राह पर चल दिए. मैं
भी जंगल में आगे चल दी ... मुस्कुराते हुए ... क्योंकि माँ की परछाई ने मेरा हाथ
जो पकड़ रखा था.
nice
ReplyDeleteThank you :)
DeleteWow.... You're brilliant.
ReplyDeleteThank you. :)
DeleteThank you. :)
DeleteWow.... You're brilliant.
ReplyDeletewow just loved the story and 100% true.. i have share the story on my fb page with your name. ankur
ReplyDeleteThank you sir.
DeleteKuch iss tarah hum unhe yaad karte rahe...
ReplyDeleteunke seekhaaye raste pe hum chalte rahe...
waqt se baar baar sirf ek he sawal karte rahe...
kyun akele he sab nadi paar karte rahe?
kyun waada karne se sab darte rahe?
kyun ek doosre ka saath sab chodte rahe?
Kyun baahon me akele nipat te rahe?
Kyun jazbaat dil me he marte rahe?
Kuch iss tarah hum unhe yaad karte rahe...
Wah! kaash in kyun ka jawaab mil paata.
Deleteकाश ....
DeleteThis comment has been removed by the author.
Deleteवाह...क्या लिखा आपने। जीवन का यथार्थ...धन्यवाद ऐसी कहानी के लिए..
ReplyDeleteDhanyawaad isse sarahne ke liye.
DeleteDhanyawaad isse sarahne ke liye.
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