Wednesday, 1 June 2016

यह शब्द मेरे बड़े शरारती हो गए हैं


आज-कल यह शब्द मेरे बड़े शरारती हो गए हैं.
न वक़्त देखते हैं
न अवसर देखते हैं,
हर पल हर जगह
बस उनकी ही बातों के लिए चले आते हैं.
यह शब्द मेरे बड़े शरारती हो गए हैं.

कितना डराती हूँ
कितना धमकाती हूँ.
"दुनिया क्या कहेगी? लोग क्या सोचेंगे?"
बार-बार यह बात समझाती हूँ.
पर शब्द उनकी ही बातों के लिए चले आते हैं.
यह शब्द मेरे बड़े शरारती हो गए हैं.

कौशल्या के राम होते तो वनवास भेज देती,
जशोदा के कान्हा होते तो इन्हें किसी पेड़ से बाँध देती.
मगर यह शब्द तो अंजनी-पुत्र जैसे हैं -
यहाँ से वहाँ
इधर से उधर भागते रहते हैं.
और उनकी ही बातों के लिए चले आते हैं.
यह शब्द मेरे बड़े शरारती हो गए हैं.

सोचा इन शब्दों को सबक सिखाऊँ.
मुंह से कुछ न बोलूं
उन्हें बाहर ही निकलने न दूँ.
कलम की स्याही में क़ैद कर दूँ
मैं कुछ भी न लिखूं.
क्योंकि
यह शब्द मेरे बड़े शरारती हो गए हैं

मगर फिर मेरे यह शब्द रोने लगे.
घुट-घुट के जैसे मरने लगे.
मुझे उन पर तरस आया
और उनसे पुछा -
'क्यों हर पल उनकी ही बातों के लिए चले आते हो?
क्यों मेरा कहना नहीं मानते हो?'

शब्दों ने भी क्या खूब जवाब दिया -
'जब देखो तब हमें डांटती रहती हो.
उनके ख्यालों में जो खोया रहता है
अपने उस मन से तो कुछ नहीं कहती हो.'
उफ़!

आज-कल यह शब्द मेरे बड़े शरारती हो गए हैं ...

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