जीवन की
धरा पर एक वृक्ष
महान,
विशाल और घनिष्ठ.
उसकी
शाखाओं पर रस्सी डाल कर
मैं झूला
झूली,
लुक्का-छुपी
खेलते
जब हम
भाई-बहन सब
अक्सर उस
वृक्ष के पीछे
मैं छिप
जाती.
तेज़ धुप
और झुलसती गर्मी में
वह वृक्ष
शीतल छाँव देता.
अपनी
विशाल छाया से जैसे
मेरे सर
पर अपना हाथ रखता.
बारिश में
उस वृक्ष का आश्रय लेती,
वह मुझे
भीगने नहीं देता.
मुझ पर
बूँदें गिरे
उससे पहले
वह खुद
उन्हें
झेल लेता.
ठिठुरती
कंपकंपाती ठंड में
वह अपनी
सूखी टहनियाँ देता ...
"इससे आग जला लो"
वह मेरा
कितना खयाल रखता.
मैं जब
कभी निराश हो जाती,
हार जाती
...
उस वृक्ष के तने का आधार लिए
मैं बैठ जाती.
वह मुझे
कितना सहारा देता.
चलते चलते
जब थक जाती
उस वृक्ष
की शरण में
मैं सोने
चली जाती ...
वह अपनी
नरम पत्तियां झाड़ देता
मेरे लिए
जैसे एक बिछौना बना देता.
वह मुझे
बड़ा आराम देता.
एक दिन
आया
वह वृक्ष
नहीं रहा.
दोस्तों,
मेरे पिता जैसा वृक्ष
इस जग में
कोई और न होगा.