Sunday 30 January 2022

भगवान के लोग

 



उन्हें आदत ही. जब कभी हम बच्चे थोड़ा सा भी परेशान दिखते तो माँ और पापा को आदत थी सिर पर हाथ फेर कर पूछने कि "सब ठीक है?" सब में से थोड़ा सा कुछ भी ठीक न होता तो कहते "कोई बात नहीं, सब ठीक हो जाएगा। तू चिंता मत कर. हम हैं न." और यह "कुछ" टूटी चप्पल से ले कर ख़राब पर्चा तक और बड़े होने के बाद नौकरी या घर की परेशानियों को लेकर था. हम बच्चे बड़े तो हुए मगर दुनिया के लिए. माँ पापा के लिए हम हमेशा उनके बच्चे ही थे. वे जब कभी सिर पर हाथ रखते तब कड़ी धुप में घने पेड़ के नीचे बैठने का आभास होता. 

कुछ साल बाद पापा चल बसे. माँ ने पापा की सारी ज़िम्मेदारियों के साथ यह ज़िम्मेदारी भी उठा ली, बखूबी उठा ली. सिर पर हाथ फेर दी थी. हम जब बड़े हो जाते हैं तब अपनी भावनाओं पर नियंत्रण करना सिख जाते हैं. मन में चाहे चिंताओं का बवंडर चल रहा हो, चेहरे पर शांत जल ही रहता है. मगर माँ उस जल के पीछे छिपे हुए बवंडर को देख लेती और सिर पर हाथ रख कर पूछ लेती "सब ठीक है न?" तनाव के लिए बड़े से बड़े डॉक्टरों की महँगी से महँगी दवाई से भी ज़्यादा असर रखता माँ का यूँ हाथ रखना. कुछ साल बाद माँ भी चली गई। मामा, मामी और ताई ने सिर पर हाथ रखते हुए कहा कि हम हैं न. माँ-पापा का दर्जा तो नहीं दे सकते मगर उन्होंने कोशिश की कि हमें माँ-पापा की कमी महसूस न हो. 

फिर परदेस जाना हुआ. जानलेवा महामारी आई. इस महामारी ने कई घर उजाड़ दिए, कई बच्चों को अनाथ कर दिया, कई के घर के सहारे छीन लिए. अप्रैल २०२१ के महीने में हफ्ते में दो तीन बार भारत से खबर आती की कोई रिश्तेदार या बुज़ुर्ग चल बसा. बस, मेरे मामा, मामी और ताई भी इस महामारी को झेल न पाए. ऐसा हाल हो गया था कि भारत से किसी का भी संदेश आता तो बुरी खबर होने का डर लगा रहता. 

जब भारत आई तो वे सारे बुज़ुर्ग अब नहीं थे जो हमारी छाँव बने, सिर पर हाथ रखे. अब मुझे "बच्चा" समझने वाला कोई न था. मगर यह बात मेरी परेशानियाँ और उलझन नहीं जानते थे. इसलिए हर बार मुँह उठाए चले आते थे. इनसे जूझना है सो जूझ ही लेती हूँ, बस वह पेड़ की छाँव बहुत याद आती है. कभी कभी उलझनों का बोझ इतना बढ़ जाता है कि चेहरे पर झूठी मुस्कान सजाने की भी हिम्मत नहीं रहती. कुछ दिन पहले एसे ही मुश्किल वक्त में माँ की एक बात याद आई. "भगवन हम सब के माता पिता समान है. सच्चे मन से उनके पास जाओगे और व्यथा सुनाओगे तो वे दुःख दूर करे न करे, दुःख से और मुश्किलों से लड़ने की शक्ति व् सूझ अवश्य देते हैं." यही बात याद करके मंदिर में गई. भगवन की शांत दिव्य मूर्ति देखी. कुछ कह नहीं पाई. एक कोने में बैठ गई और आँखे बंद कर के मन में कहने लगी "हे भगवन! कब तक ऐसे ही चलेगा? मैं थक गई हूँ, हार सी गई हूँ. या तो मुश्किल ख़तम हो या यह जीवन." और एक तीव्र इच्छा जागी कि काश मेरे पापा या मेरी माँ या कोई तो होता जो मेरे सिर पर हाथ रखकर कहे कि "चिंता मत कर, सब ठीक हो जाएगा।" और यह भी जानती थी कि यह संभव नहीं. आँखे मूंदे बैठी रही. 

और अचानक सिर पर किसी का हाथ महसूस हुआ. तुरंत आँखे खोली. एक बूढी औरत मेरे पास झुके हुए खड़ी थी. सिर पर अभी भी उसका हाथ था और उसने पूछा "सब ठीक है बेटी? परेशान लग रही हो?" बांध टूट गया. आँखों से आंसू थम ही नहीं रहे थे. आँसू पोंछते हुए मैंने उनसे कहा "कुछ नहीं मौसी, बस यूँही कुछ परेशानियां थी और माँ पापा याद आ रहे थे." वह मुस्कुरा कर बोली "तुम तो जगत पिता के घर में बैठी हो. वे सब को और सब कुछ देखते हैं. चिंता मत करो. अपना ख्याल रखना." और वह चल दी. रुई से पानी जब निकल जाता है और वह वह एकदम सुख जाने पर जैसा हल्का हो जाता है... मन भी सूखे रुई सा हो गया. 

लोग कहते हैं भगवान मंदिरो में नहीं मिलते। वे मिलते हो या न मिलते हो... भगवान के लोग ज़रूर मिल जाते हैं.