Wednesday 25 September 2019

झूला


वह चली जा रही थी … उसके दिनचर्या में था वैसे घर से काम पर. आज रास्ता बंद था. उसे दूसरे रास्ते से जाना पड़ा. 

दूसरे रास्ते पर वह चल रही थी और बीच में एक उद्यान … एक पार्क आया. पार्क में झूले, स्लाइड और बच्चों के खेल क्रीड़ा के कई ओर साधन थे. न जाने उसे क्या सुझा, उसने पार्क का गेट खोला और अंदर गई. और जैसे ही अंदर गई वह एक पाँच साल की बच्ची बन गई. 

खिलखिलाती, चहकती ऐसी बच्ची जिस पर न नौकरी या पैसे कमाने की चिंता, न घर संभालने की ज़िम्मेदारी थी. वह दौड़ कर झूले की तरफ गई और झूलने लगी … चेहरा जैसे सूरजमुखी हो गया था. खुश, बहुत खुश थी वह. 

फिर पार्क की घड़ी पर ध्यान गया तो बच्ची के अंदर जो बड़ी लड़की थी उसे याद आया कि काम पर जाना है. वह झूले से उतर कर पार्क के बाहर गई. और जैसे ही बाहर कदम रखा वह फिर से बड़ी हो गई. वह मुड़ कर झूले को देख कर मुस्कुरा रही थी. उसका दिन जो करेले सा कड़वा जाता वह गुड़ सा मीठा गया. उसने फिर इस पार्क में कुछ पल के लिए आने का जैसे नियम सा बना लिया. और उसे केवल उसी झूले पर झूलना अच्छा लगता … चाहे फिर सिर्फ 5 मिनट के लिए ही सही. ज़िम्मेदारियाँ अपनी जगह पर ही थी बस उन्हें निभाना आसान हो रहा था. 

मगर फिर एक दिन … 

वह झूला झूल रही थी और तब पार्क का चौकीदार आया और डांटते हुए कहा "जब देखो यहाँ इसी झूले पर आकर बैठ जाती हो. यह तुम्हारा अकेली का नहीं. सार्वजनिक है. सब का इस पर बराबर का हक़ है."
वह रो पड़ी और बोली "मैं सिर्फ पाँच से दस मिनट के लिए खेलती हूँ और मुझे ओर किसी से भी इतना मज़ा नहीं आता. मुझे झूलने दो न."
पार्क का चौकीदार गुस्से में हो गया और बोला "इतना ही पसंद है तो जाकर खुद का झूला खरीद लो. अब निकलो यहाँ से!"
वह रोती हुई बाहर आ गई. बाहर आते ही बड़ी तो हो गई मगर उसके अंदर की बच्ची बहुत रोए जा रही थी. वह काम पर गई, शाम होते घर पर लौटी, खाना बनाया और जीवन अब पहले सा बीतने लगा. 

कुछ दिन बाद वह फिर से उस पार्क से गुज़री. चौकीदार ने उसे देखा. दौड़ते हुए आया और पूछा "वह बच्ची कहाँ है? आजकल नहीं आती?"
"वह अब कभी नहीं आएगी. वह मर गई."
"मर गई?!"
"हाँ. मैंने मार डाला. मैं उसे खुद का झूला नहीं दिलवा सकती थी और झूले के बिना वह खुश नहीं रहती थी. इसलिए मैंने उसे मार डाला."

Tuesday 5 February 2019

नाराज़गी




वो नाराज़ है. जैसे मैं उनसे नाराज़ थी कुछ महीनों पहले. वो गलियाँ जहाँ मैंने अपनों के साथ बिताए हुए खूबसूरत वक़्त का पानी छिड़का था और उस छिड़के हुए पानी से जहाँ यादों के महकते फूल खिले थे … वे गलियाँ नाराज़ है. क्यों न होती. मैंने उनको गुस्से में छोड़ जो दिया था. क्या करती … जिन गलियों की रौनक मेरे अपनों से बनी रहती थी, वे सारे अपने एक एक कर के बिछड़ गए. जहाँ से बारात गुज़री थी वहीं से जनाज़ा भी गुज़रा. ऐसा लग रहा था कि जैसे वे गलियाँ हस रही थी मेरी इस नादान सोच पर कि सब साथ रहेंगे. मगर वे बेचारी बेकसूर थी. और यह बात उन गलियों को छोड़ कर जाना. अब जब लौटी हूँ तो गलियाँ अनजान बनी हुई है, नाराज़ है.

ऐसी नाराज़गी के बीच रहने से अच्छा मैं फिर चली जाऊँ … नए शहर की नई गलियों में. और जैसे ही चल दी तो पीछे से उन गलियों ने कहा “तू हमसे नाराज़, हम तुझसे नाराज़ हैं, जो भी हो हम तेरे अपने हैं”.