Tuesday 3 January 2017

अँधेरा



बड़ी ही शान्ति है ... यह अँधेरा मेरे पास है. कितना प्यारा है न यह अँधेरा? नहीं? शायद आपको रौशनी और चिरागों की आदत होगी. अच्छी बात है ... मुझे भी ऐसे किसी चिराग पाने की चाहत थी. रौशनी भरे बाज़ार में चिरागों की जगमगाहट को देख कर धोखा खा गई और चिराग की जगह सिर्फ उसकी तस्वीर ले आई. जब अँधेरे कमरे में उस तस्वीर को रखा तब अपनी गलती का एहसास हुआ. अब क्या करती? औरों के घरों में जब कभी जलते हुए चिराग देखती तब इस मुझे मेरी गलती का एहसास जला देता. बाज़ार से दीया लाने का मौका भी फिर एक ही बार मिला था.

मैंने लोगों को खुदा से चाँद और तारे मांगते हुए देखा ... उन्हें चाँद और तारे मिलते हुए भी देखा. सोचा खुद भी चांदनी मांग कर देखूं. अमावस की रात आ गई. सोचा तारों की रौशनी पा कर खुश हो जाऊं. काले बदल छा गए आसमान में. उस अँधेरे में दम घूँट रहा था. किस से जा कर फ़रियाद करूँ? अँधेरे की वजह से किसी को मेरे आंसू भी तो नज़र नहीं आ रहे थे.

फिर सोचा क्यों न अपने हाथों से ही मिटटी का एक दीया बनाऊं? आशा की बाती बनाई और प्रेम से घी डाला और जलाया. मगर उसी वक़्त एक तेज़ हवा का झोंका आया और लौ बुझ गई. घोर अँधेरा! फिर से वही कोशिश की ... फिर से वही तेज़ हवा का झोंका. कुछ देर तक तो यह ज़िद जारी राखी मगर फिर अंदर से एक टीस सी उठी. आशा का दीया जितनी बार निराशा में बुझ जाता मानो जैसे मुश्किल से घुटनों के बल खड़ी हुई हूँ और ज़ोर से गिरा दी गई जाती हूँ.


तब अँधेरे ने संभाल लिया और कहा "मैं हूँ ना". कितना अपनापन था उसके पास. मैंने तब से रौशनी की चाहत छोड़ दी. और अब खुश हूँ. क्योंकि मैंने तो चिराग और रौशनी की चाहत की और उन्होंने मुझे ठुकराया ... वह अँधेरा ही था जिसने मुझे चाहा, गले लगाया और अपनाया.