Monday 21 November 2016

एक-तरफी गुफ़्तगू

लगता है तुम सो रहे हो. हाँ, सो रहे हो तो अच्छा है. क्योंकि अगर जागते तो तुमसे बातें होती. और अगर बातें होती तो तुम्हारा कीमती वक़्त बीत जाता. मेरा वक़्त तो खैर ... अब सिर्फ मैं बातें करुँगी और तुम ... तुम तो सुनोगे भी नहीं. गुफ़्तगू होगी, मगर एक तरफी. मगर इस एक तरफी गुफ़्तगू का अपना ही मज़ा है. न तुम मुझे टोकोगे और न मेरी बातें रुकेंगी. फिलहाल तो मेरी कहानियां रुक गई हैं. कब कलम उठेगी, नहीं जानती. कब इन कहानियों और ख़यालों को मेरे ज़हन से आज़ादी मिलेगी, नहीं जानती. और फिर डर लगता है कि कहीं इन ख़यालों की स्याही ख़तम हो गई तो मैं क्या लिखूंगी? सोचती बहुत हूँ पर इस सोच को अंजाम नहीं दे पाती.
तुम सो रहे हो न? हाँ, यूँही सोते रहो. अच्छा है मैं वहां तुम्हारे करीब नहीं. जानते हो क्यों? मुझे तुम्हारी आँखें बेहद पसंद है ... और क्योंकि तुम सो रहे हो तो मैं क्या देखती? तुम्हारा चेहरा? नहीं. तुम्हारे हाथ? हाँ, शायद तुम्हारे हाथ देखती. तुम्हारे हाथों की रेखाएं मुझसे बहुत कुछ कहती है. ये रेखाएं मेरी बात नहीं सुनती ... बस मुझसे बातें करती है. जैसे मैं तुमसे कह रही हूँ और तुम कुछ नही कह सकते हो. एक-तरफी गुफ़्तगू मेरे और तुम्हारे बीच में ... एक तरफी गुफ़्तगू तुम्हारी रेखाएं और मेरे बीच में.
सुबह जब तुम उठोगे तब यह रेखाएं शांत हो जाएँगी. वे तुम्हे अपना काम करने से रोकेगी नहीं, टोकेगी नहीं. इन रेखाओं को इजाज़त ही नहीं की वह तुम्हारे काम से बातें करें. अब तुम्हारा काम बातें करेगा. और तुम्हारा मुक़द्दर सुनेगा. और यूँही एक-तरफी गुफ़्तगू का सिलसिला जारी रहेगा.
मगर जानते हो ... एक सवाल मेरे दिल में उठता है. वह कौन होगा जिससे तुम यूँ एक-तरफी गुफ़्तगू करते होगे? कोई तो होगा न जो तुम्हे टोकता नहीं होगा, जो सिर्फ तुम्हारी बातें सुनता होगा. न वह तुम्हे जंचेगा या परखेगा, न सही या गलत का करार देगा, क्योंकि वह शायद तुम्हे सुन ही नहीं पा रहा. जैसे मैं तुम्हे अब कह रही हूँ और तुम नहीं सुन रहे हो. हाँ, मेरी एक-तरफी गुफ़्तगू.