Saturday 30 April 2016

ख़त - 1

उसने गुलाबी फूलों वाला लेटर पेड निकाला. आकाश को वह ऐसे रंगीन कागज़ पर ही खत लिखा करती थी. बेरंग सफ़ेद कागज़ तो बेरंग से रिश्तों से जुड़े रहने के लिए होते हैं. अपनी चाय का कप टेबल पर रखा और मोबाइल को साइलेंट मोड पर रख दिया. उसके और आकाश के बीच कोई न आने पाये ... इन अंतरंग से पलों में कोई खलल न हो ... होठों पर मुस्कराहट और हाथ में कलम लिए उसने कागज़ पर लिखना शुरू किया ...

डियर आकाश, कैसे हो? घर पर सब कैसे हैं? तुम्हारा नया जॉब तो बड़ा एक्साइटिंग लग रहा है. इसी बहाने अलग अलग शहरों की सैर हो जाया करेगी. फेसबुक पर तुम्हारे नए फ़ोटो देखे. उफ़! अच्छा लगा जान कर की तुम अपने बालों को छोटे नहीं कटवाते. चेहरे पर वही सूरज जैसा तेज ...
और वह रुक गई. आकाश का चेहरा याद आते ही वह एक अलग दुनिया, एक अलग वक़्त में चली जाती.


मन सचमुच हवा से भी तेज़ होता है. पल भर में हमें कहाँ से कहाँ ले जाता है. आप चाहे बारिश में भीग रहे हो ... मन पल भर में आपको सूखे बंजर रण में पहुंचा सकता है. आप चाहे महफ़िल में बैठे हो ... मन आपको किसी तन्हाई, एकांत भरे माहौल में खड़ा कर देता है. मन वक़्त की हदों को भी पार कर जाता है ... समय के बंधन से परे है यह. बुढ़ापे में जवानी और जवानी में बचपन तक ले जाता है. पल हो, दिन हो, महीने हो या साल ... मन कहीं भी चला जाता है. नैना का मन उससे तीन साल पीछे ले गया. एक अलग शहर ले गया. जहाँ वह श्रीमती नैना दीक्षित थी. लंन में रहने वाले पराग दीक्षित की पत्नी.



(to be continued ...)

Friday 8 April 2016

रेहने दो, तुम नहीं समझोगे।


टीस सी उठती है दिल में,
काँटे चुभते हैं।
नज़र नहीं आते
पर चुभते हैं।
रेहने दो, तुम नहीं समझोगे।

सीने में जलन होती है
धुआँ सा उठता है।
नज़र नहीं आता
पर उठता है।
रेहने दो, तुम नहीं समझोगे।

एक पीड़ा चीर देती है
खून बेहता है।
नज़र नहीं आता
पर बेहता है।
रेहने दो, तुम नहीं समझोगे।

एकांत होता है।
मैं रोती रेहती हूँ।
आँसू नज़र नहीं आते
पर मैं रोती रेहती हूँ।
रेहने दो, तुम नहीं समझोगे।

मुझे अपने गले लगा लो
थोड़ा आराम मिल जायेगा
ज़ख्म पर मरहम सा लग जायेगा।
पर
रेहने दो, तुम नहीं समझोगे।

Saturday 2 April 2016

काश रामायण मैंने लिखी होती


"प्रभु श्री रामचन्द्र जी अपनी पत्नी सीता और भाई लक्ष्मण के साथ वनवास पर निकले और ..."
"मगर वह मना भी तो कर सकते थे?"
"क्या?! चुपचाप रामायण सुन!"
...
"रामचन्द्र जी सीता के केहने पर मृग का शिकार करने गए ..."
"अरे! मगर वह मना भी तो कर सकते थे ना?"
"तू फिर से बोली? कहा ना चुपचाप रामायण सुन!"
...
"रामचन्द्र जी ने लक्ष्मण को आदेश दिया कि वह सीताजी को वन में छोड़ आये ..."
"वे साफ़ मना भी तो कर सकते थे ना?"
"अब अगर बीच में फिर से टोका तो ना रामायण सुनाऊंगी और ना कोई दूसरी कहानी!"

बस यही होता रहता कुछ पूछो भी मत, मन में अगर कोई विचार आए तो बोलो भी मत ऐसे कैसे कहानियाँ सुन लूँ?

यह तब की बात थी जब मैं छोटी थी ... कुछ ७ या ८ साल की। पड़ोस में एक बूढ़ी औरत रहती थी जिन्हें सारे बच्चे 'दादी' बुलाते थे। मेरे भाई-बहन और दोस्तों को मिला कर वे कुछ १६-१७ बच्चों की दादी थी और वे हमें कहानियाँ सुनाती थी। उनकी कहानियों में कभी कई कोई ख़ास दिव्यशक्ति वाले मनुष्य होते, कभी देवी देवता होते और कभी बोलते हुए जानवर पक्षी भी होते। मगर उनकी कुछ कहानियों से मुझे आपत्ति थी। जैसे रामायण, महाभारत और अन्य पौराणिक कथाएँ। सबसे बड़ी आपत्ति तो यह थी कि उनमे जो पात्र थे वे इतनी सरलता से अत्याचार का या किसी और के हित का निर्णय कैसे स्वीकार कर लेते? पीढ़ी दर पीढ़ी को ये कहानियाँ सुनाई गई और शायद मानसिकता यह हो गई कि जब प्रभु रामचन्द्र जी ने फलाना-ढिमका सहन किया था तो हमारी क्या औकात? अरे, उन्होंने सहन किया, ठीक है। वे महापुरुष हैं। यह भी ठीक है। मगर मुझे कोई शौक नहीं कि महापुरुष (या महऔरत) कहलाऊं। वे नहीं लड़े हालात से - यह उनका निर्णय था। ऐसे कई पात्र हैं जिन्होंने कमनसीबी को ही अपना नसीब मान लिया। ना पुछा, ना प्रतिप्रश्न किया, ना वाद-विवाद किया। आखिर किसने कहा है अत्याचार सहने को और इससे सहन करने पर कोई मैडल भी तो नहीं मिलने वाला कि "सबसे ज़्यादा दुःख सहन करने के लिए हम श्री ____ या श्रीमती ____ को भारत रत्न से पुरुस्कृत करते हैं।"
और सच तो यह है कि ऐसे सौ पुरस्कार मिलने पर भी मैं हरगिज़ अत्याचार ना सहन करूँ। जैसे अगर मैं रामायण में श्री राम होती तो ज़रूर केहती "वचन तो पिताजी ने दिया था, वनवास मैं क्यों जाऊँ?"
अगर मैं उर्मिला जी होती तो लक्ष्मण से ज़रूर केहती "मैंने क्या इसलिए आपसे विवाह किया था कि १४ साल का वियोग सहन करूँ? अगर आपको भाई भाभी की ही सेवा करनी थी तो मुझसे शादी करके मेरा जीवन क्यों बर्बाद किया?"
अगर मैं मंदोदरी होती तो रावण से केहती "उस सीता के लिए मरे जा रहे हो जो तुम्हे मुड़ कर भी नहीं देखती, बस अपने पति का नाम जपते रहती है। मेरे प्रेम की तो तुम्हे कोई कदर ही नहीं। ठीक है फिर मुझे तलाक दे दो।"
और अगर तो मैं रामचन्द्र जी होती तो अयोध्यावासियों से केहती "जो पत्नी अपने पिता के महल में इतने आराम से रही हो वह मेरे साथ वनवास पर चल पड़ी, हर हाल में मेरा साथ दिया, चाहती तो रावण का प्रस्ताव स्वीकार कर सकती ... वो पत्नी मेरे लिए आप सब से ज़्यादा महत्व रखती है। आप में से कौन आया था मेरे साथ जंगलों में, फल मूल खा कर पेट भरा, नंगे पाँव काँटों पर चला? और आज किसी धोबी के केहने पर मैं अपनी पत्नी को फिर से वनवास भेज दूँ? नहीं, कतई नहीं। जायेंगे तो हम दोनों साथ जायेंगे, वरना अकेले तो मैं उससे भेजने से रहा।"


काश रामायण मैंने लिखी होती ...