Sunday, 24 May 2020

पागल नहीं ...



मैं कॉफी शॉप में अपनी पसंदीदा जगह पर अपनी पसंदीदा कॉफी के साथ पसंदीदा किताब लेकर बैठ गई. घर पर शांति से पढ़ने नहीं मिलता था और बाग़ में कोई न कोई जाना पहचाना मिल जाता. किताब बेचारी इंतेज़ार करती रहती जाती. 

मैंने पढ़ना शुरू ही किया था कि उसकी बातें सुनाई दी. मेरे पास वाले टेबल पर उसका अखबार, चश्मे, कॉफी कप, मोबाइल और चाबियाँ थी. और वह बातें किए जा रहा था "... मैं वहाँ से चला जाता मगर मेरे पैसे अभी बाकी थे". उसके आसपास कोई न था, मोबाइल हाथ में न था. न जाने वह किस से बातें कर रहा था. मैं असमंजस में देखती रही और उसकी नज़र मुझ पर पड़ी. मैंने झट से किताब के पन्ने पर नज़र फेर ली. और यह कुछ दिन तक ऐसे ही चलता रहा. 

एक शाम वह मेरे टेबल पर आया और पूछा "क्या मैं यहाँ बैठ सकता हूँ?"
मैं कोई बहाना सोचु उससे पहले वह एक कुर्सी करीब रख बैठ गया. 
"कौनसी किताब पढ़ रही हैं?" 
मैंने किताब दिखाते हुए कहा "कोशिश कर रही हूं."
वह हंसा और मुझे उस किताब के बारे में बताने लगा. और उसकी इस बातों से यह तो ज़ाहिर हो गया कि वह कोई पागल नहीं, पंडित था. इस विचार को दिमाग में आकर होंठो पर आते हुए देर नहीं लगी. मैंने उसे पूछ ही लिया "आप तो बड़े समझदार, ज्ञानी और सुलझे हुए इंसान लगते हो." 
"लगता हूँ मतलब?"
"मतलब आप जिस तरह घंटे भर किसी अदृश्य इंसान से बाते करते रहते हो … आपको तो कोई भी …" मैं आगे बोल नहीं पाई. 
"पागल समझेगा?" यह कहते हुए ज़ोर से हंस पड़ा. और बोला "किसने कहा मैं अदृश्य इंसान से बातें करता हूं? मैं तो अपने चश्मे से बातें करता हूँ." 
मुझे शायद ऐसा करना नहीं चाहिए था पर मैं हंसते हंसते बोली "मतलब पक्के पागल ही हो!" 
चुप हो गई. कहीं बुरा मान लिया हो. मगर वह मुस्कुराते हुए बोला "मेरे कई दोस्त हैं, परिवार वाले हैं, सहकर्मी है. मगर जब कभी मैं अपने दिल की बात या विचार व्यक्त करता हूँ तो हर कोई अपने हिसाब से सही या गलत ठहरता है. सब को जज करना होता है. मैं ओर भी मायूस हो जाता. बस एक दिन मन हल्का करने को अपने चश्मे के आगे गुबार निकाला. चश्मे बेचारे क्या करते? सब कुछ चुपचाप सुन लिए. और मुझे सही मायने में सुकून मिला. चश्मे दोस्त की तरह "बाद में बात करते हैं, अभी बिज़ी हूँ" नहीं कहते. मैं शायद पागल हूँ, पर खुश हूँ."

उसकी बातों का कोई जवाब नहीं था मेरे पास. नहीं करना था मुझे जज. उसे किसी श्रेणी में डालना नाइंसाफी होती. खैर, उस दिन बाद हम कम बात करते. समय बिता और किस्मत ने ऐसी परवाज़ ली कि मुझे विदेश पुहंचा दिया. 

कहने को लोग जैसे लोग मगर उन लोगों में वह अपनापन कहाँ. अच्छी नौकरी, अच्छा खाना, अच्छा रहना … मगर अकेले खाना, अकेले रहना. जिस दिन मुझे छुट्टी रहती उस दिन दोस्तों को काम रहता. फिर भारत और मेरे निवासी देश में समय का इतना फ़र्क कि मैं जब काम से लौट आती तब भारत में बसे मेरे दोस्तों का सोने का वक्त हो चला होता है. 

देश याद आता, माँ याद आती, पड़ोसी याद आते, दोस्त याद आते, जगह सारी याद आती, मौसम याद आता, खाना याद आता, हर चीज़ याद आती और मैं रो पड़ती. और यूँही रोते हुए आंसू पोंछने के लिए टिश्यू की तरफ हाथ बढ़ाया. हाथ में चाबियों का गुच्छा आया.

मैं उठी. किचन में गई. दो कप चाय बनाई और रूम में ले आई. दूसरा कप क्यों? उस गुच्छे के लिए. बस फिर क्या, मैंने जी भर कर अपनी दिल की बातें उस गुच्छे से कही और वह बिना टोके, बिना रोके, बिना अभिप्राय दिए, चुपचाप मुझे सुनता रहा.