एक मेला सा था जैसे
जहाँ हम दोनों पहले मिले.
जान पहचान बढ़ी.
दो बातें तुमने लिखी,
दो बातें मैंने भी लिखी
जो तुमने पढ़ी.
कुछ आप-बीती,
कुछ शौक और पसंद,
कुछ काफिये और शायरी
जो तुमने मुझे लिखी,
जो मैंने भी लिखी
और तुमने पढ़ी.
इन बातों में न जाने कब
प्यार दबे पाँव चला आया
उन बातों में अब कशिश आ गई
जो तुमने मुझे लिखी,
जो मैंने तुम्हे लिखी
और तुमने पढ़ी.
अब तो रात भर जागते रहते
एहसास और अरमानो को भी जगाते रहते
दिल लुभाती थी वे बातें
जो तुमने मुझे लिखी,
जो मैंने तुम्हे लिखी
और तुमने पढ़ी.
मगर वक़्त बीतते
न जाने क्या हुआ ...
शायद नशा ही था
जो हौले हौले उतर गया.
और यूँही कम होने लगी वह बातें
जो तुमने मुझे लिखी,
जो मैंने तुम्हे लिखी
और तुमने पढ़ी.
तुम मसरूफ रहने लगे
मैंने भी बहाने बना लिए
दुआ-सलाम तक रह गई वह बातें
जो तुमने मुझे लिखी,
जो मैंने तुम्हे लिखी
और तुमने पढ़ी.
फिर जाना कि
तुम्हारी वह बातें तो अब भी होती हैं,
बस किसी ओर से
मुझसे नहीं.
मैं शिकायत भी क्या करती
क्योंकि हम दोनों ने लिखी थी जो बातें
वह तुमने तो सिर्फ पढ़ी थी
पर
मैंने महसूस की थी.